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प्रायश्चित, विनय, वैयावृत, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान - ये अन्तरंग तप हैं। जो आत्मा के निर्मल || परिणामों और विषय-कषायों की मन्दता में होते हैं।
राजकन्या सर्वांग सुन्दर तथा आकर्षक बाह्य व्यक्तित्व की धनी तो थी ही, तापसी के वेष में उसका रंग-रूप और भी निखर गया था" कठिन तप करने से वह समस्त तापसों द्वारा आदरणीय थी। उसने | पाण्डवों का खूब अतिथि सत्कार किया।
एक दिन पाण्डवों की माता कुन्ती ने उससे पूछा - हे कोमलांगी ! तुझे नई यौवन अवस्था में वैराग्य किस कारण से हो गया?
मृगनेत्री राजपुत्री मधुर वाणी से बोली - मेरे माता-पिता ने पहले से ही पाण्डवों के बड़े भाई युधिष्ठिर से मेरा विवाह करने का संकल्प कर रखा था; परंतु मेरे पाप के प्रभाव से उनका अग्नि में जलने से निधन हो गया। जब मैंने यह सुना तो मैं हताश हो गई। उनको ही मैंने पति रूप में माना है, मैं उन्हें पुनर्जन्म में पा सकूँ एतदर्थ मैं तप करने लगी हूँ।
तापसी कन्या के वचन सुनकर माता कुन्ती ने कहा - हे भद्रे! तूने बहुत उत्तम किया जो अपने प्राणों की रक्षा की।
जब भली होनहार होती है तो विचार भी तदनुकूल सहज ही बन जाते हैं। अब भी तू तप करते हुए अपने प्राणों की रक्षा करना । यदि तू तप करते हुए जीवित रहेगी तो तेरे पापों का क्षय इसी जन्म में हो जायेगा और तुझे तेरे अभीष्ट की सिद्धि इसी जन्म में अवश्य होगी।
युधिष्ठिर ने भी माँ कुन्ती के भावों का अनुसरण करते हुए उस राजकन्या को अहिंसा आदि पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का स्वरूप समझाया।
जिसे यथार्थ सम्यग्दर्शन प्रकट हो चुका है, आत्मानुभूति हो गई है, उसे ही ज्ञानी कहते हैं। ऐसा ज्ञानी | जीव जब अपने में देशचारित्रस्वरूप आत्मशुद्धि प्रकट करता है, तब वह व्रती श्रावक कहलाता है।
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