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________________ के उदर से हो गया था । यद्यपि पुराणों में उनके गांधर्व विवाह का उल्लेख है; परन्तु ऐसे गांधर्व विवाहों यानि | अघोषित विवाहों को उस समय वैधानिक मान्यता नहीं थी। अतः राज्य के बटवारे में उसे कोई हिस्सा नहीं मिला। इसकारण कर्ण का भी पाण्डवों से विरोध हो गया था। 'शत्रु का शत्रु मित्र हो जाता है' इस उक्ति के अनुसार कर्ण की कौरवों से मित्रता हो गई। पाँचों पाण्डवों को पूर्वोपार्जित पुण्य के फल में अज्ञातवास के समय भी सब अनुकूलतायें सहज उपलब्ध होती रहीं। असीम प्रतिकूलताओं में भी उन्हें दुःख का आभास तक नहीं हुआ। भोजन, शयन, आसन आदि सब अचिन्तित रूप से प्राप्त होते रहते थे। यदि हम भी उनके समान सुखद जीवन बिताना चाहते हैं तो सदैव सत्कर्म करें, दूसरों के दुःख में कारण न बनें। ज्ञातव्य है कि - हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह संग्रह रूप पाँचों पापों से दूसरों के प्राण पीड़ित होते हैं अतः इनसे हमें सदैव संकल्पपूर्वक बचना चाहिए। उन्होंने आगे चलने पर तापस का वेष धारण कर और तापसों के तपोवन में विश्राम किया। वहाँ वसन्त सुन्दरी' राजकन्या रहती थी। गुरुजनों ने उस कन्या को पहले से ही युधिष्ठिर को देने का संकल्प कर रखा था; परन्तु जब उनके जल जाने का समाचार मिला तो वह कन्या उस अग्नि दाह की दुर्घटना को अपने पूर्वकृत पापकर्म का फल मानकर उसकी निन्दा करती हुई तपस्वियों के उस आश्रम में ही अपने पापों का क्षय करने को तप करने लगी। यदि हम ऐसी दुःखद प्रतिकूलताओं में नहीं पड़ना चाहते हों तो हम भी अपने पूर्वपापों का क्षय करने के लिए यथाशक्ति तप करें। तप दो प्रकार के हैं - एक, अन्तरंग तप और दूसरा, बहिरंग तप। अनशन, उनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्तशैया और आसन तथा काय-क्लेश - ये बहिरंग तप हैं। आत्मा की पवित्रता के लिए ये भी यथा शक्ति करना ही चाहिए। ro " Fo
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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