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| पीटते उसकी दुर्दशा करते राजा मधु के दरबार में न्याय की माँग करते पेश किया और कहा कि हे न्याय | के सिंहासन पर विराजमान राजन् ! इसके लिए कौन-सा दण्ड दिया जाय ?
राजा मधु ने उत्तर दिया - यह इसका अक्षम्य अपराध है, यह महापापी है। इसलिए इसके हाथ-पाँव काटकर इसे भयंकर दण्ड दिया जाय। | देवी चन्द्राभा ने उसी समय राजा मधु को रोकते हुए कहा - हे देव ! यदि यह इतना बड़ा अपराध है
तो यही अपराध तो आपने भी किया है। ___चन्द्राभा के वचन सुनते ही राजा मधु की आँखे फटी की फटी रह गईं। उन्हें मानो पक्षाघात हो गया हो - ऐसे हतप्रभ हो गये, मुख म्लान हो गया, कान्ति नष्ट हो गई। वह विचार करने लगा - मेरी हितचिन्तक चन्द्राभा ने सच ही कहा है। सचमुच परस्त्रीहरण का महापाप निश्चय ही कुगति का कारण है। दुःखद दुर्गति करनेवाला है। मेरी बुद्धि कैसे भ्रष्ट हो गई ?
राजा मधु को अपने पापों का प्रायश्चित करते हुए संसार से विरक्त होता देख चन्द्राभा भी विरक्त हो गई और कहने लगी - हे प्रभो ! अब इन परस्त्री विषयक भोगों से क्या प्रयोजन ! हे नाथ ये इन्द्रियों के विषयसुख यद्यपि वर्तमान में सुखद लगते हैं, किन्तु वस्तुत: ये अविचारित रम्य हैं, विचार करने पर तो स्पष्ट समझ में आता है कि जो इन्द्रिय सुख-आदि में, मध्य में और अन्त में आकुलता ही उत्पन्न करते हैं, बाधा सहित हैं, क्षणिक हैं, पापबन्ध के कारण हैं, इन्हें कोई भी समझदार सुख नहीं कह सकता।
चन्द्राभा के द्वारा इसप्रकार समझाये जाने पर राजा मधु मोहरूपी मदिरा के मद से मुक्त हो गया और बड़ी प्रसन्नता से आदरपूर्वक उससे कहा - हे चन्द्राभा ! तुम सचमुच साध्वी हो, तुमने बहुत अच्छी बात कही है। यथार्थ बात यही है कि सत्पुरुषों के ऐसे कुकृत्य करना सर्वथा अनुचित है; क्योंकि ऐसे दूसरों के दुःख पहुँचानेवाले पापरूप कामों से इहलोक व परलोक दोनों भव बिगड़ते हैं। जब मेरे जैसा प्रबुद्ध व्यक्ति ऐसा लोकनिंद्य कार्य करेगा तो अविवेकी साधारण की तो बात ही क्या है ?