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जहाँ स्वस्त्री के प्रति अति आसक्ति को पापबन्ध के कारण होने से त्याज्य कहा हो, वहाँ परस्त्री के भोग | होनेवाले पापबन्ध की तो बात ही क्या कहें ? उसके विषय में तो सोचना भी महापाप है, नरक-निगोद
का कारण है। शास्त्रों में कहा है कि यह मनरूपी मदोन्मत्त हाथी ज्ञानरूपी अंकुश से रोके जाने पर भी बड़ेबड़े विद्वानों तक को कुमार्ग में गिरा देता है तो साधारण ज्ञानहीन जिनके पास ज्ञान और वैराग्य के बल का अंकुश नहीं है, उनकी दुर्दशा की क्या कथा करें ?
जो ज्ञानीजन इस निरंकुश मन को आत्मज्ञान और वैराग्य से वश में कर लेते हैं, वे विरले ज्ञानी धन्य हैं। इसप्रकार अपने विवेक को जाग्रत कर राजा मधु ने आगे कहा – “अब मैं तप के द्वारा अपने पूर्व संचित्त पापों का क्षय करता हुआ ध्यानरूपी अग्नि से आत्मा की शुद्धि करूँगा। यह कहकर राजा मधु ने अपने छोटे भाई कैटभ के साथ नगर में आये विमलवाहन आदि एक हजार मुनिराजों के संघ में जाकर दिगम्बरी जिनदीक्षा ले ली। वे निर्ग्रन्थ मुनि बन गये । चन्द्राभा आदि रानियाँ भी संसार को असार जानकर दीक्षित हो गईं।
मधु और चन्द्राभा ने मुनि एवं आर्यिका के व्रत लेकर अपने पापों का प्रायश्चित्त तो कर ही लिया; अहिंसा, सत्य आदि पाँच महाव्रत ईर्या, भाषा, ऐषणा आदि समितियाँ, पाँचों इन्द्रियों के विषयों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर तथा समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और आत्मध्यान आदि अन्तरंग तपों द्वारा कर्मों की निर्जरा भी की।
उन दोनों धीर-वीर मुनिराजों ने एवं चन्द्राभा ने अपनी देह की पीड़ा की परवाह न करके आत्मसाधना हेतु बेला, तेला आदि कठिन बाह्य तप भी किए। अनुप्रेक्षाओं, दशधर्मों की भावना भाते हुए बाईस परीषहों को जीतकर कर्मों का संवर करते हुए रत्नत्रय की विशुद्धि कर अन्त में सम्मेदशिखर पर एक माह का प्रायोपगमन सन्यास लेकर समाधिपूर्वक देह का त्याग कर आरण और अच्युत स्वर्ग में २२ सागर की आयु प्राप्त कर इन्द्र व सामानिक देव हुए।