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यद्यपि राजा मधु बुद्धिमान और स्वाभिमानी था, वह जानता था कि परस्त्री के कारण मेरा अपवाद होगा, | मैं कलंकित हो जाऊँगा; तथापि विनाश काले विपरीत बुद्धि के अनुसार उसने सोच लिया कि चन्द्रामा में रि जो कलंक है वह जिसतरह चन्द्रमा की शोभा का कारण बना हुआ है, उसीतरह मेरा यह कलंक भी मेरी शोभा ही बढ़ायेगा ।
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जब व्यक्ति के बुरे दिन आते हैं, तब बुद्धि वैसी ही विपरीत हो जाती है और वह चेष्टाएँ भी वैसी ही | करने लगता है और बाह्य कारण भी तदनुकूल मिल ही जाते हैं। संयोग से राजा मधु जब राजा भीमक पर विजय प्राप्त कर वापिस लौटा था तब राजा वीरसेन और उसकी पत्नी चन्द्राभा भी साथ आये थे । वहाँ राजा मधु ने उन दोनों का खूब सत्कार करके राजा वीरसेन को तो वापिस विदा कर दिया और मन में छल रखकर | चन्द्राभा को यह कह कर रोक लिया कि अभी उसके योग्य आभूषण तैयार नहीं हो पाये, आभूषण तैयार होते ही भेज देंगे। भोला-भाला वीरसेन उसके छल को नहीं समझ पाया और घर चला गया। इधर राजा मधु ने चन्द्राभा को अपनी महारानी (पत्नी) बनाकर सब रानियों में उसे सर्वोच्च स्थान - महादेवी का पद प्रदान कर दिया।
कहावत है 'अंधा क्या चाहता दो आँखें' चन्द्राभा भी यही चाहती थी, अत: उसने भी अपने विवाहित | पति राजा वीरसेन की उपेक्षा करके राजा मधु की स्त्री बनना स्वीकार कर लिया और उसके साथ भोगों | में मग्न हो गई । सचमुच कामान्ध व्यक्ति अपना हिताहित नहीं समझता ।
इधर चन्द्राभा का पूर्व पति वीरसेन अपनी पत्नी की विरहरूपी अग्नि की ज्वाला में जल-भुन कर आधा पागल-सा होकर इधर-उधर भटकने लगा। एक दिन वह 'चन्द्राभा ! चन्द्राभा !!' की रट लगाये विलाप करता हुआ नगर की गलियों में भटक रहा था कि महल पर खड़ी चन्द्राभा ने उसे उस हालत में देखा तो उसके हृदय में दया उमड़ आई। उसने अपने पास ही बैठे राजा मधु से कहा- हे नाथ ! देखो यह मेरा पूर्व | पति कैसा पागल की तरह प्रलाप करता हुआ मेरे नाम की रट लगाये घूम रहा है ।
संयोग से उसी अवसर पर कुछ कठोर हृदय वाले कर्मचारियों ने एक परस्त्री सेवन के अपराधी को मारते
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