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________________ वे बता रहे थे कि 'देखो, धन, जाति और शास्त्रीय ज्ञान का गर्व करना कुगति का कारण है। पर्याय | पलटते ही न जाति का कोई ठिकाना रहता है, न कुल का । क्षण में राजा पापकर्म के फल में रंक हो जाता है, रुग्ण होकर दुःखी हो जाता है। संक्लेश परिणामों से मरणकर नरकों में भी चला जाता है और पशु भी अकामनिर्जरा करके मनुष्य व देवगति प्राप्त कर लेता है। पुराणों में तो ऐसे अनेक उदाहरण मिलते ही हैं, हम अपने जीवन में भी दिन-रात ऐसी घटनायें देखते-सुनते रहते हैं। अत: हमें प्राप्त पर्याय की अनुकूलता में न तो मूर्छित होना चाहिए और न ही अहंकार करना चाहिए। कहा भी है - द्रव्यरूप करि सर्व थिर, पर्यय थिर है कौन द्रव्यदृष्टि आपा लखो, पर्यय नय करि गौण ।। द्रव्यदृष्टि से तो हम सभी अनन्तगुणों के घनपिण्ड और अनन्तशक्तियों के पुंज हैं ही, कोई भी किसी से कम नहीं है, अत: अहंकार करने की बात ही नहीं बनती और पर्यायदृष्टि में जो अन्तर दिखाई देता है, वह भी बादल और बिजली की भांति क्षणभंगुर है, उन क्षणिक अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों में भी हर्षविषाद करना निरर्थक ही है।" यह सब उपदेश नवीन आगन्तुक अग्निभूत एवं वायुभूत भी ध्यान से सुन रहे थे। उपदेश के बीच जब आचार्यश्री की दृष्टि उन पर पड़ी और उन्हें बीच में बोलने का उत्सुक देखा तो आचार्यश्री को विचार आया कि इन्हें आगे बुलाकर थोड़ा आदर देना चाहिए; अन्यथा ये सभा में विघ्न बाधा खड़ी कर सकते हैं। मुनिराज अवधिज्ञानी भी थे, इसकारण वे उनके विषय में बहुत कुछ जान चुके थे। अत: उपदेश के बीच में ही आचार्यश्री ने उन दोनों को आगे बुलाया। उन्हें आगे बुलाने से जो महत्त्व मिला, उससे उनको तो मान की खुराक मिलने से वे तो प्रसन्न हुए ही, विशिष्ट अन्य लोग भी उनके व्यक्तित्व की ओर आकर्षित हुए और अधिकांश प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने आसपास बैठकर उन्हें घेर लिया। 4 64 ___
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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