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आचार्यश्री ने उन दोनों के मिथ्या गर्व को खंडित करने के अभिप्राय से और उन्हें सन्मार्ग दिखाने की || पवित्र भावना से अपने प्रवचन में उन्हें सम्बोधित करते हुए उनसे पूछा - हे विद्वानो ! आप लोग कहाँ से रि आये हैं? उत्तर में उन्होंने कहा - गुरुदेव ! हम इसी शालिग्राम से आये हैं।
मुनिराज ने कहा - यह तो ठीक है, हम तो आप जैसे विद्वानों से यह जानना चाहते हैं कि इस अनादि| अनंत संसार में परिभ्रमण करते हुए आप इस मनुष्यगति में किस गति से आये हैं?
दोनों विद्वानों ने कहा - "यह बात हम तो क्या ? शायद ही कोई बता सके कि कौन किस गति से | आया है और कौन कहाँ जायेगा ? यदि आप जानते हों तो हमें अवश्य बतायें। हमें यह जानने की पूरीपूरी जिज्ञासा जाग्रत हो गई है।"
मुनिराज ने कहा - "मुझे अवधिज्ञान प्राप्त है, यद्यपि मैं उसका उपयोग कभी करता नहीं हूँ, क्योंकि उसका विषय बहुत स्थूल है और पर के जानने मात्र में उसका उपयोग है। आत्मा का हित तो आत्मा के जानने और उसी में जमने-रमने से है; परन्तु आप जैसे श्रुतज्ञ विद्वानों को देखने से अनायास ही तुम्हारे भूतकाल को जानने में मेरा अवधिज्ञान जुड़ गया है, फिर भी मैं तुम्हें बताना नहीं चाहता था, क्योंकि उसे तटस्थ भाव से जानकर उसका आत्महित में उपयोग करना हर एक के वश की बात नहीं है। तुम अपनी पूर्व की कथा-व्यथा सुनकर कहाँ तक सह पाओगे, मैं नहीं जानता। अपनी पूर्व की दुर्दशा का दिग्दर्शन करने में बहुत ही सहनशीलता चाहिए। तुम सोच लो ! क्या तुम सुनकर सहज रह सकोगे? ___ अग्निभूत-वायुभूत ने कहा - मुनिवर ! आप अवश्य कहें, अब हमें जानने की और भी तीव्र जिज्ञासा जाग्रत हो गई है। हम धैर्य से सुनेंगे और उसका आत्महित में ही उपयोग करने का प्रयत्न करेंगे। ___ मुनिराज ने कहा – ठीक है, सुनो! तुम दोनों भाई इस जन्म से पूर्व इसी शालिग्राम की सीमा के निकट शृंगाल थे। दोनों ही परस्पर प्रीति से रहते थे। इसी ग्राम में एक किसान रहता था। एक दिन वह खेत को | जोतकर निर्वृत्त हुआ ही था कि बड़े जोर से वर्षा होने लगी तथा तीव्र आधी आ गयी। उससे वह बहुत पीड़ित हुआ, उसका शरीर काँपने लगा, जिससे वह खेत के पास ही वटवृक्ष के नीचे चमड़े का उपकरण छोड़कर
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