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रुक्मणी से विवाहोपरान्त श्रीकृष्ण ने रुक्मणी के लिए सत्यभामा के महल के पास ही नानाप्रकार की सुख-सुविधाओं एवं भरपूर सम्पदा और दास-दासियों सहित महल बनवा दिया तथा उसे ही प्रमुख रानी का दर्जा देकर उसका सम्मान बढ़ाया, जिससे वह पूर्ण प्रसन्न और संतुष्ट हो गई।
इधर सत्यभामा को जब यह पता चला कि श्रीकृष्ण समस्त रानियों को अतिक्रान्त करनेवाली सर्वगुणसम्पन्न एक और नारी को विवाह कर लाये हैं और वह उन्हें अत्यधिक प्रिय है तो वह अन्तरंग में तो उससे ईर्ष्या करने लगी और दिखावे में बड़ी धीरता से उनके साथ और अधिक प्रेम का व्यवहार करने लगी।
एक दिन श्रीकृष्ण रुक्मणी के द्वारा उगले हुए पान को वस्त्र के छोर में छिपाकर सत्यभामा के घर गये। वह पान स्वभावत: सुगन्धित तो था ही, उस पर रुक्मणी के मुख की सुगन्ध ने उसमें और भी चार चाँद लगा दिए थे, 'यह कोई सुगन्धित पदार्थ है' - इस भ्रान्ति से सत्यभामा ने उसे ले लिया और उस पान के उगाल को अच्छी तरह पीसकर अपने शरीर पर लगा लिया। यह देखकर श्रीकृष्ण हँसी नहीं रोक पाये। उन्हें खूब हँसी आई। इससे सत्यभामा की ईर्ष्या की आग को और भी ज्वलनशील ईंधन मिल गया, वह क्रोधावेश में आगबबूला हो गई।
श्रीकृष्ण की ऐसी चिढ़ानेवाली चेष्टाओं से सत्यभामा सौत के रूप लावण्य को देखने के लिए उत्सुक हो उठी। एतदर्थ उसने एक दिन अपने पति से कहा - हे नाथ ! मुझे मेरी छोटी बहिन रुक्मणी से मिलवाइये न ! श्रीकृष्ण कौतूहल स्वभाव के तो थे ही अत: उन्होंने सत्यभामा को एक और कौतूहल से चकित करने के लिए रुक्मणी से सीधा न मिलाकर एक नई चाल चली।
श्रीकृष्ण ने रुक्मणी को मणिजड़ित बावड़ी के किनारे पर इसतरह खड़ा किया कि वह साक्षात् देवी ||१९
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