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भरतक्षेत्र में निवास करनेवाली देवियों ने अपने दिव्य सामर्थ्य से विक्रिया कर बहुत सी चितायें रच दी और जरासंध शत्रु के लिए यह दिखा दिया कि यादव लोग शत्रु के भय से अग्नि में जल गये हैं।
जरासंध ने स्वयं ऐसा महसूस किया कि जहाँ-तहाँ चतुरंग सेना अग्नि की ज्वाला से व्याप्त है, जल रही है। उन्हीं देवियों द्वारा जलाई चिताओं की ज्वाला से जब जरासंध का आगे बढ़ने का मार्ग अवरुद्ध हो गया | तो उसने अपनी सेना को वहीं रोक दिया । जरासंध ने वहाँ पर बुढ़िया का रूप धर एक देवी को रोते हुए देखकर उससे पूछा - हे वृद्धे ! यह विशाल सेना का कटक किसका जल रहा है? और तू यहाँ क्यों रो रही हैं?
उत्तर में वृद्धा ने रुंधे हुए कंठ एवं सजल नेत्रों से भावुक होकर कहा - "हे राजन ! मुझे इस बात का बहुत दुःख है कि मेरे सामने देखते-देखते जो ये व्यक्तियों का समूह अग्नि को अर्पित हो गया है, ये और कोई नहीं यदुवंशी राजा एवं उनकी प्रजा और सेना है। राजगृह नगर में एक सत्य प्रतिज्ञ जरासंध राजा है, जो समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का शासन करता है।
अपने अपराधों की बहुलता से यादव लोग जरासंध की ओर से सदा सशल्य रहते थे, निःशंक होकर शान्ति से नहीं रह पाते थे। इसकारण वे प्राण बचाने के लिए कहीं पश्चिम दिशा की ओर निकले; परन्तु समस्त पृथ्वी में उन्हें कहीं कोई शरण देनेवाला नहीं दिखा तो वे अग्नि में प्रविष्ट होकर मरण की शरण में चले गये और अग्नि में जलकर निःशल्य हो गये । मैं उन्हीं राजाओं की वंश परम्परा से चली आयी दासी हूँ। मुझे अपना जीवन प्रिय था, इसलिए मैं उनके साथ नहीं जल सकी, परन्तु अपने स्वामी के कुमरण से दुःखी हूँ और रोना आ रहा है।"
वृद्धा के वेष में देवी के वचन सुनकर जरासंध बहुत विस्मित हुआ और उसके वचनों का विश्वास कर जिन यदुवंशियों के पीछे युद्ध हेतु लगा हुआ था, उन्हें अग्नि में जला हुआ मानकर उसी समय वापस घर लौट आया और निश्चिंत होकर रहने लगा। उधर यादव लोग भी पश्चिम समुद्र के पास आकर यथास्थान ठहर गये।