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ज्ञानीजन इन सब परिस्थितियों को जानकर, ऐसे जीवन में होनेवाले उत्थान-पतन को देखकर विचार || करते हैं - "जब तक आयुकर्म शेष हैं, होनहार भली है, तबतक मार्ग में आनेवाली विपत्तियाँ टल जाती हैं, विपत्तियाँ सम्पत्तियों में बदल जाती हैं।
अत्यन्त निर्दय और कुपित जरासंध अत्यधिक हठ से मार्ग में यादवों के पीछे लगा और शत्रु का नाश करने तथा स्वयं मरने के लिए शीघ्र दौड़ा; परन्तु देवी के द्वारा प्रज्वलित की गई ज्वालाओं के कारण मार्ग अवरुद्ध हो जाने से लौट आया। इस तरह दोनों पक्षों की रक्षा हो गई।
आचार्य कहते हैं कि जो व्यक्ति धर्म की शरण में रहता है, वे पुण्योदय से रक्षित होते ही हैं। अतः सभी को धर्माचरण करने योग्य है।
"मैं शरीर नहीं, मैं तो एक अखण्ड ज्ञानानंदस्वभावी अनादि-अनन्त एवं अमूर्तिक आत्मा हूँ तथा यह शरीर मुझसे सर्वथा भिन्न जड़स्वभावी, सादि-सान्त, मूर्तिक पुद्गल है। इससे मेरा कोई संबंध नहीं है।
जिसे आपने कभी न देखा, न पहचाना, उससे मोह कैसा ? अत: आप मुझसे राग-द्वेष का भाव छोड़े। मैं भी आप सबके प्रति हुए मोह एवं राग-द्वेष को छोड़ना चाहता हूँ। आप लोग मेरे महाप्रयाण के बाद, खेद-खिन्न न हों तथा आत्मा-परमात्मा की साधना-आराधना में सदा तत्पर रहें।
बस, यही मेरा आपको संदेश है, उपदेश है, आदेश है और आशीर्वाद है। इसे जिस रूप में चाहें ग्रहण करें। पर इस कल्याण के मार्ग में अवश्य लगें। इस स्वर्ण अवसर को यों ही न जाने दें।
__ - विदाई की बेला, पृष्ठ-१२८-१२९, हिन्दी संस्करण १० वाँ
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