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युद्ध में भाई अपराजित के मरने से जरासंध को जो दुःख हुआ था - उससे वह अवश्य ही मर जाता; परन्तु यदुवंशी शत्रुओं से बदला लेने के क्रोध ने उसे मरने से बचा लिया। जरासंध ने समस्त यादवों का नाश करने के लिए मन में पक्का विचार कर लिया और निर्भीक होकर शत्रु के सम्मुख जाने के लिए अपने अधीन एवं मित्र राजाओं को आज्ञा दी। स्वामी की आज्ञा पाकर उसके हित चाहने वाले नाना देशों के राजा अपनी-अपनी चतुरंग सेनाओं सहित आ पहुँचे।
इधर जरासंध ने जब यादवों पर चढ़ाई करने के लिए प्रयाण किया तब यादवों ने अपने गुप्तचरों द्वारा शीघ्र ही पता लगा लिया कि जरासंध हम पर आक्रमण करने वाला है। अतः ज्ञानवृद्ध एवं वयोवृद्धों ने विचार-विमर्श किया कि - तीन खण्डों में इसकी आज्ञा का पूर्णपालन होता है, यह स्वयं तो उग्र है ही, इसकी शासन व्यवस्था भी अत्यन्त कठोर है; किन्तु इसमें यह एक अच्छी बात है कि - यह किए हुए उपकार को भूलता नहीं है, कृतज्ञ हैं। नम्रीभूत हुए व्यक्ति को क्षमा कर देता है। हम लोगों का कभी इसने अपकार (बुरा) नहीं किया है। उपकार करने में ही सदा तत्पर रहा है।
परन्तु जिस तरह गुलाब में जहाँ फूल होते हैं, वहाँ काँटे भी होते हैं, ठीक इसी तरह जरासंध में जहाँ इतनी अच्छाइयाँ हैं, वहीं कुछ कमियाँ भी हैं। वह अहंकारी बहुत हैं, इसकारण हमारी अपरिमित शक्ति को स्वीकार ही नहीं कर पा रहा है। अत्यन्त प्रगट सामर्थ्य को देखकर भी देख नहीं पा रहा है। नारायण कृष्ण के पुण्य का प्रताप और बलभद्र बलराम का पौरुष बालकपन से ही जगजाहिर हो रहा है; इन्द्रों के आसन को कम्पित कर देने वाले तीर्थंकर नेमिनाथ का प्रभुत्व तीनों लोकों में प्रगट हो चुका है; फिर भी वह अपने अहंकार में इतना चकचूर है कि उसका सारा विवेक कुंठित हो गया है। जिस तीर्थंकर की सेवा में समस्त लोकपाल तत्पर रहते हैं, उस तीर्थंकर के कुल का कौन मनुष्य अपकार कर सकता है?
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