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१६९|| प्रौढ़ थे। जो शौर्यपुर की प्रजा रूप कमलियों को विकसित करने में बालसूर्य थे। ऐसे जिन बालक को इन्द्र | ने माता की गोद में दे दिया। तत्पश्चात् विक्रिया शक्ति से युक्त इन्द्र ने स्वयं देदीप्यमान कन्धों की शोभा
को पुष्ट करने वाली हजार भुजायें बनाकर उन्हें फैलाया और उन पर नाना प्रकार का नृत्य करने वाली हजारों | देवियों से नृत्य कराया। इस लीला को जब सामने बैठे यादव देख रहे थे और इस लाभ से अपने को धन्य मान रहे थे तब इन्द्र ने स्वयं महानन्द नाम का नाटक किया, जिसे सबने टकटकी लगाकर देखा । इसप्रकार उत्सवपूर्वक प्रारंभ किये उत्तम ताण्डव नृत्य की शोभा देखने योग्य थी।
इन्द्र ने माता-पिता को प्रणाम किया, अमूल्य आभूषणों से उन्हें अलंकृत किया। जिनेन्द्र नेमिकुमार के दाहिने हाथ के अंगूठे में अमृतमय आहार निक्षिप्त किया। बालक नेमि के साथ बालक बनकर नाना प्रकार की क्रीड़ा कराकर मनोरंजन करानेवाले देवकुमारों को नियुक्त किया । कुबेर को आज्ञा दी कि तुम नेमिकुमार | को ऋतुओं के अनुकूल सुविधायें जुटाते रहना ।
इसप्रकार इन्द्र उपर्युक्त समस्त व्यवस्थायें देवताओं को सौंपकर अपने आपको कृतकृत्य मानता हुआ चार निकायों के देवेन्द्रों के साथ अपनी यात्रा को सफल मानता हुआ वापस स्वर्ग चला गया।"
केवल नाम सदासुखी रखने से थोड़ी ही कोई सुखी हो जाता है, सुख-शान्ति प्राप्त करने के लिए हमें काम भी ऐसा करना चाहिए, जिससे सुख की प्राप्ति हो। मैंने अपने जीवन में ऐसा कोई काम ही नहीं किया। मैं तो दिन-रात एकमात्र पैसा कमाने के चक्कर में ही पड़ा रहा। वस्तुतः मैं ऐसा मान बैठा था कि पैसा ही सब सुखों का साधन है, पैसे से सब सुख पाये जा सकते हैं, पर अब मेरा यह भ्रम दूर हो गया है; पैसा बहुत कुछ हो सकता है, पर सब कुछ नहीं। अब मैं स्वयं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि आज मेरे पास क्या नहीं है ? करोड़ों की चल-अचल संपत्ति, अटूट आमदनी के स्रोत; पर पाप का उदय आते ही वह सब संपत्ति देखते ही देखते विपत्ति बन गई है।
- विदाई की बेला, पृष्ठ-८, हिन्दी संस्करण १० वाँ
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