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“वर्तमान में मेरी वाणी में ऐसी क्षमता नहीं है कि मैं यह तत्त्वज्ञान की निधि सम्पूर्ण जगत को बता सकूँ। | यदि कभी ऐसी योग्यता प्राप्त हो तो मैं पूर्ण निःस्वार्थ भावना से जगत के कल्याण में अपना सर्वस्व लगा दूँगा।"
परोपकार की ऐसी पवित्र उज्ज्वल निःस्वार्थ भावना से उस जीव को तीर्थंकर नामकर्म की ऐसी पुण्य प्रकृति का बन्ध होता है, जिसके फल में दिव्यध्वनि जैसी समर्थवाणी और समोशरण जैसी इन्द्रों द्वारा निर्मित धर्मसभा की प्राप्ति तो होती ही है, उसके साथ और भी बहुत सारा ढेरों सातिशय पुण्य का बंध होता है, जिसके फलस्वरूप गर्भ में आने के पूर्व से अन्य अतिशय होते हैं।
जिन्हें ऐसा पुण्य और ऐसा वीतराग धर्म प्राप्त करने की भावना हो तो वह भगवान नेमिनाथ के जीव जैसे आदर्श के काम करें।
तीर्थंकर नेमिनाथ के जीव ने विश्वकल्याण करने के पावन भावों से तीर्थंकर प्रकृति बांधी थी, फलस्वरूप वे २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ हुए और इन्द्र की आज्ञा और अपनी भक्ति-भाव से कुबेर ने स्वयं आकर भावी तीर्थंकर के माता-पिता को स्नान कराया, उन्हें सम्मानपूर्वक वस्त्राभूषण पहनाये। माता शिवादेवी ने दिक्कुमारियों द्वारा किये गये गर्भ शोधन के बाद गर्भधारण किया । सर्वांग सुन्दर शिवादेवी के गर्भ में तीर्थंकर जीव के आने से उनके उदर की त्रिवलियाँ भी भंग नहीं हुईं और न उन्हें गर्भ धारण से अन्य साधारण माताओं की भांति कोई कष्ट ही हुए। तीर्थंकर जिसके गर्भ में हैं, उस माँ की वाणी अत्यन्त हित-मित-प्रिय होती है, माता का मन पूर्ण निर्मल था। वे देवांगनाओं द्वारा शोधे गये स्वास्थवर्द्धक, अल्प आहार लेती थीं। नौ माह सुखपूर्वक कब/कैसे बीत गये, उन्हें आभास तक नहीं हुआ।
वैशाख शुक्ला त्रयोदशी की शुभ तिथि में शिवादेवी ने समस्त जगत को जीतने वाले तीर्थंकर पुत्र को | जन्म दिया। बाल तीर्थंकर के जन्मते ही स्वर्ग में नाना प्रकार के दुदुंभिबाजे बजे और तीन लोक में हर्ष छा गया। चतुर्निकाय के देव जन्मकल्याणक मनाने हेतु चल पड़े।
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