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| तेरहवें में 'उत्तम विमान के देखने से यह सूचित होता है कि - विमानों के स्वामी इन्द्रों की पंक्तियों से | उसके चरण पूजित होंगे। वह मानसिक व्यथा से रहित होगा, महान अभ्युदय का धारक होगा और बहुत बड़े मुख्य विमान से वह यहाँ अवतरित होगा।'
चौदहवें स्वप्न में नागेन्द्र के निकलते हुए भवन को देखने से यह प्रगट होता है कि तुम्हारा वह पुत्र संसार रूपी पिंजड़े को भेदनेवाला होगा एवं मति, श्रुत और अवधिज्ञानधारी होगा।'
पन्द्रहवें स्वप्न में 'आकाश में रत्नों की राशि देखने का फल यह है कि वह शरणागत जीवों को आश्रय देनेवाला होगा।'
सोलहवें स्वप्न में 'निर्धूम अग्नि देखना इस बात को दर्शाता है कि ध्यान रूपी प्रचण्ड अग्नि को प्रगट कर समस्त कर्मों के वन को जलायेगा।'
राजा समुद्रविजय ने रानी से कहा - "हे प्रिये ! उस पुत्र के प्रभाव से रत्नजड़ित मुकुट तथा उत्तम कुण्डल आदि से सुशोभित इन्द्र साधारण राजाओं के समान सेवक होकर मेरी आज्ञा में खड़े रहेंगे तथा इन्द्राणियाँ तेरी सेवा में उपस्थित रहेंगी। हे प्रिये ! तेरी कूख से जो बाल तीर्थंकर उत्पन्न होने वाला है, वह हम सबके कल्याण में निमित्त बनेगा और अपने पूरे यादव वंश की शोभा बनेगा।"
इसप्रकार पति के द्वारा कहे स्वप्नों के फल को सुनकर रानी शिवादेवी बहुत सन्तुष्ट और प्रसन्न हुई।
इस सर्ग से पाठकों को यह प्रेरणा प्राप्त होती है कि "भगवान कोई अलग नहीं होते । जो भी जीव विश्वकल्याण की भावना भाता है। वह स्वयं तो तत्त्वज्ञान प्राप्तकर वस्तुस्वरूप की यथार्थ समझ से अपने आपमें आत्मिक शान्ति, निराकुल सुख की अनुभूति करता ही है, साथ ही उसके अन्दर ऐसी उज्ज्वल, परोपकार की भावना प्रबल रूप से जागृत होती है कि - "काश! सारा जगत इस स्वतंत्र स्वसंचालित विश्वव्यवस्था को समझ ले तो अनादिकालीन पर के कर्तृत्व के भार से, पर को सुखी-दुःखी करने की | मिथ्या अवधारणाओं से जो परेशान रहता है, वे समस्त परेशानियाँ, सारे मानसिक कष्ट मिट सकते हैं।"
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