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१६०॥ सब दिशाओं से आई हुई दिक्कुमारी देवियाँ परिचर्या द्वारा माता शिवादेवी की सेवा कर रही थीं। वे
| माता की सेवा से यह सूचित कर रही थीं कि जो पुण्यशाली पवित्र आत्मा माता के गर्भ में आने वाला
है, वह त्रिलोक पूज्य, जगत हितकारक, महान व्यक्ति होगा। पति के साथ मिलकर नाना प्रकार के अतिशय | देखने से अत्यन्त हर्षित हो रही माता शिवादेवी ने एक दिन रात्रि में सोते समय उत्तम सोलह स्वप्न देखे।
पहले स्वप्न में - माता ने इन्द्र का ऐरावत हाथी देखा। दूसरे स्वप्न में - श्वेत रंग का सुन्दर सींगों वाला एवं लम्बी सास्ना वाला बैल देखा। तीसरे स्वप्न में - पर्वत के शिखर पर स्थित, अत्यन्त लम्बा श्वेत सिंह देखा। चौथे स्वप्न में - हाथियों द्वारा सुगंधित जल से अभिषिक्त, हाथों में खिले कमल लिए एवं कमलासन पर बैठी लक्ष्मी देखी। पाँचवें स्वप्न में - दो लटकतीं मालायें तथा छटवें स्वप्न में - निर्मल आकाश के बीच अन्धकार को नष्ट करता हुआ चन्द्रमा देखा। सातवें स्वप्न में - सूर्य । आठवें में – मछलियों का युगल, नवें स्वप्न में - जल से भरे दो कलश । दसवें स्वप्न में - कमलों से सुशोभित राजहंस एवं उत्तम पक्षियों से युक्त बड़ा सरोवर देखा । ग्यारहवें स्वप्न में - रत्नों से सुशोभित महासागर, बारहवें स्वप्न में - सिंहासन, तेरहवें स्वप्न में - आकाश तल में विमान देखा। चौदहवें स्वप्न में - नागेन्द्र भवन, पन्द्रहवें स्वप्न में - उत्तम रत्नों की राशि और सोलहवें स्वप्न में - निर्धूम अग्नि देखी।
इसतरह स्वप्नदर्शन के बाद शिवादेवी ने देखा कि - एक सफेद ऐरावत हाथी आकाश से उतरकर मेरे मुख में प्रविष्ट हुआ है।
प्रात:काल होने पर शिवादेवी पति के पास जाकर रात्रि में देखे सोलह स्वप्नों का फल पूँछती हैं। पति | उनके स्वप्नों को सुनकर क्रमशः एक-एक स्वप्न का फल बताते हुए कहते हैं कि -
पहले स्वप्न में देखे ऐरावत हाथी का फल यह है कि तुम्हारे गर्भ में आज तीर्थंकर का जीव आ चुका है।' दूसरे स्वप्न का फल यह है कि वह 'तेरा पुत्र अनेक जीवों का रक्षक होगा, निर्मल बुद्धि का धारक और जगत का गुरु होगा।'
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