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तत्पश्चात् जरासंध का भाई अपराजित जो यथानाम तथागुण सम्पन्न अब तक अपराजित ही रहा था, | उस वीर अपराजित ने यादवों के साथ स-दल-बल तीन सौ छयालीस बार युद्ध किया; परन्तु अन्त में वह रि भी श्रीकृष्ण के बाणों की नोंक से निष्प्राण कर दिया गया ।
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आचार्य कहते हैं, जब तक प्राणियों को स्व-पर कल्याणकारक धर्म का आलम्बन रहता है; तब तक कषायों की मन्दता रहती है और उन्हें अहंकार-ममकार नहीं होता। इसकारण वे सतत् सातिशय पुण्य बांधते | रहते हैं। फलस्वरूप उन्हें वर्तमान में तो लौकिक अनुकूलता मिलती ही है और आगे चलकर वे अपूर्व पुरुषार्थ से कर्मों का अभाव करके अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त करते हैं। तथा जो अज्ञान के कारण अहंकारी होकर दूसरों का बुरा-भला करने की ही सोचते रहते हैं वे पुण्यकर्म कम और पाप ही अधिक बांधते हैं; जैसे कि कंस, जरासंध, अपराजित आदि ने किया ऐसे जीव वर्तमान में तो आकुल-व्याकुल रहते ही हैं। उनका भविष्य भी अंधकारमय ही होता है। अतः सभी जीवों को धर्म की शरण में ही सदैव रहना चाहिए।
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“भला जिनके पैर कब्र में लटके हों, जिनको यमराज का बुलावा आ गया हो, जिनके सिर के सफेद बाल मृत्यु का संदेश लेकर आ धमके हों, जिनके अंग-अंग ने जवाब दे दिया हो, जो केवल कुछ ही दिनों के मेहमान रह गये हों, परिजन- पुरजन भी जिनकी चिर बिदाई की मानसिकता बना चुके हों, अपनी अन्तिम विदाई के इन महत्त्वपूर्ण क्षणों में भी क्या उन्हें अपने परलोक के विषय में विचार करने के बजाय इन व्यर्थ की बातों के लिए, विकथाओं के लिए समय है ?, जिसका अनन्त दुःख है” यह एक महत्त्वपूर्ण विचारणीय बिन्दु है। यह सोच-सोच कर मेरा मन व्यथित होने
लगा ।
- विदाई की बेला, पृष्ठ- ३, हिन्दी संस्करण १० वाँ
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