________________
।
श्री
१५०॥ राजा जरासन्ध ने विधवा बेटी जीवद्यशा को समझाते हुए पहले तो - तत्त्व का सहारा लिया, वस्तुस्वरूप
के अवलम्बन से उसे शान्त करते हुए कहा - "बेटी ! अत्यधिक शोक मत कर, जो होता है वह होनहार | और कर्मोदय के अनुसार ही होता है। जब, जो जिस निमित्त से होना होता है, वह तभी उन्हीं सब कारणों
से होकर ही रहता है। अपने किये का फल तो प्रत्येक प्राणी को भोगना ही पड़ता है। दूसरों की शक्ति का तिरस्कार या सत्कार करनेवाला दैव ही इस संसार में प्रधान है। हमारे द्वारा कभी किसी को इसीप्रकार की पीड़ा पहुँचाई गयी होगी। व्यक्ति पाप तो हंस-हंसकर बांधता है और जब उसके फल भोगने का समय आता है तो रुदन करता है। ऐसे विलाप और रुदन करने से तो पुनः असाता कर्म का बन्ध होता है, अत: रुदन करना छोड़ !"
आगे तात्कालिक समाधान के लिए यह भी कहा - तू चिंता मत कर ! हम तेरे साथ हुए अन्याय का बदला शत्रुपक्ष से लेंगे। उन यादवों को इतना भी विवेक नहीं है। खेत में घुसने का इच्छुक पशु भी वध की आशंका से सबसे पहले निकलने का निरुपद्रव मार्ग देखता है; परन्तु तेरे पति कंस को मारते समय इन मत्त यादवों ने इतना भी विवेक नहीं रखा। इससे स्पष्ट है कि अब इन्होंने मेरे द्वारा अपनी मौत को ही आमंत्रण दिया है। इसतरह जीवद्यशा को आश्वस्त किया और कहा - हे वत्से ! ये भले अब तक तेरे चरण की शरण प्राप्त कर निष्कंटक रहे हों और भले ही ये बलवान हों; तथापि अब यह निश्चित है कि ये शीघ्र ही मेरे क्रोध से बरसनेवाली दावानल की ज्वालाओं से भस्म होने वाले हैं।
इसप्रकार प्रियवचन रूपी जल से पुत्री की क्रोधाग्नि को शान्तकर स्वयं क्षोभ को प्राप्त हुए राजा जरासंध ने यादवों को मारने के लिए यमराज के तुल्य अपने कालयवन नामक पुत्र को आदेश दिया।
कालयवन हाथी, घोड़ा रथ आदि से युक्त सेना के साथ शत्रु के सम्मुख चला और यादवों के साथ सत्रह बार भयंकर युद्ध कर अतुलमालावर्त पर्वत पर स्वयं नष्ट हो गया; यहाँ भी होनहार' का विचार कर ही संतोष होता है,