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| वहाँ गाँव के बाहर गायों के खिरका में अपनी पत्नी यशोदा के साथ सुनन्द नामक गोप रहता था। | वह वंश परम्परा से चला आया बलदेव एवं वसुदेव का विश्वासपात्र व्यक्ति था। उन्होंने रात्रि में ही उसे देखा | और दोनों (दम्पत्ति) को बालक कृष्ण को सौंपकर कहा - देखो भाई ! यह पुत्र विशाल नेत्रों का धारक
जगत का हितकारी महान पुण्यवान व्यक्ति है। इसे अपना पुत्र समझ कर इसका भलीभांति पालन-पोषण | करो और यह रहस्य किसी को प्रगट न हो - इस बात का पूरा ध्यान रखो। यह कहकर तथा उसीसमय यशोदा के उदर से उत्पन्न हुई पुत्री को लेकर दोनों वहाँ से शीघ्र वापस आ गये तथा शत्रु कंस का विश्वास कायम रखने के लिए उसे अर्थात् यशोदा की पुत्री को रानी देवकी के लिए देकर गुप्तरूप से बैठ गये।
इधर बहिन की प्रसूति का समाचार पाकर निर्दयी कंस प्रसूतिगृह में घुस गया। वहाँ निर्दोष कन्या को देखकर यद्यपि उसका क्रोध शान्त हो गया था, तथापि दीर्घदर्शी होने के कारण उसने विचार किया कि कदाचित् इसका पति मेरा शत्रु हो सकता है। इस शंका से आकुलित होकर उसने उस कन्या को स्वयं उठा लिया और हाथ से मसलकर उसकी नाक चपटी कर दी।
इसप्रकार देवकी के मन को सन्ताप करनेवाले कंस ने जब देखा कि अब इसके पुत्र होना बन्द हो गये हैं। तब वह संतुष्ट हो हृदय की क्रूरता को छिपाता हुआ कुछ दिनों तक सुख से रहा।
इधर देवकी के सातवें पुत्र का जातिसंस्कार कर 'कृष्ण' नाम रखा गया। बालक कृष्ण ब्रजवासी नन्द और यशोदा की अभूतपूर्व प्रीति को बढ़ाता हुआ उनके घर सुख से बढ़ने लगा। जब वह बालक हाथपैर चलाता था तो उसकी हथेलियों और पैरों के तलवों की रेखा से अंकित गदा, खड़ग, चक्र, अंकुश, शंख तथा पद्म आदि वीरता और महापुरुष के प्रतीक प्रशस्त चिह्न देखकर गोप-गोपियों के मन उसकी ओर सहज आकर्षित होते थे।
उस मनोहर बालक को देखने के लिए गोपिकायें स्तनपान कराने के बहाने आती हैं और उन्हें टकटकी लगाकर देखती रहीं, वे बालक के रूप-लावण्य को देखने से तृप्त ही नहीं होती।
इधर कंस के हितैषी वरुण नामक निमित्तज्ञानी ने उससे कहा कि - हे राजन ! यहीं-कहीं नगर अथवा ॥ १४
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