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चिन्तागति का जीव जो माहेन्द्र स्वर्ग में था, वहाँ से चयकर तुम अपराजित हुए हो और मनोगति एवं | चपलगति के जीव भी माहेन्द्र स्वर्ग से चय कर हम दोनों अमितवेग और अमिततेज हुए हैं। पुण्डकरीकणी नगरी में स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के समीप मुनि दीक्षा लेकर उनसे हमने अपने पूर्व भव सुने । उनके बताये अनुसार हे राजन् अपराजित ! तुम हमारे बड़े भाई चिन्तागति के जीव ही माहेन्द्र स्वर्ग से पूर्व ही च्युत होकर यहाँ | अपराजित हुए हो। हम दोनों पूर्व भवों के संस्कार वश धर्मानुराग से तुम्हें संबोधने आये हैं। तुम इसी भरत
क्षेत्र के हरिवंश नामक महावंश में अरिष्ठनेमि नामक तीर्थंकर होगे। इस समय तुम्हारी आयु एक माह की ही शेष रह गई है। अत: आत्महित करो। इतना कह अमितवेग और अमिततेज दोनों मुनि विहार कर गये। ___चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के वचन सुनकर राजा अपराजित हर्षित होता हुआ भी बहुत समय तक यही चिन्ता करता रहा कि मेरा तप करने का बहुत-सा महत्त्वपूर्ण समय यों ही निकल गया। अन्त में प्रीतिकर पुत्र को राज्यभार सौंपकर शरीरादि से निस्पृह हो वह भी मुनि हो गया।
तत्पश्चात् प्रायोपगमन सन्यास से सुशोभित दिन-रात चारों आराधनाओं की आराधना कर वे अच्युत स्वर्ग में बाईस सागर की आयु धारक अपराजित इन्द्र हुए। वहाँ से चयकर नागपुर में राजा श्रीचन्द्र और श्रीमती के सुप्रतिष्ठित नामक पुत्र हुआ। वह जिनधर्म का उपासक था। राजा श्रीचन्द्र सुप्रतिष्ठित को राज्य देकर मुनि होकर मुक्त हो गये। एकबार राजा सुप्रतिष्ठित ने मासोपवासी यशोधर मुनिराज को नवधा भक्तिभावपूर्वक आहारदान दिया; फलस्वरूप रत्नवृष्टि आदि पंच आश्चर्य हुए।
एक बार राजा सुप्रतिष्ठित कार्तिक की पूर्णिमा की रात्रि में अपनी आठ सौ स्त्रियों से वेष्टित हो महल की छत पर बैठा था। उसी समय आकाश में उल्कापात हुआ। उसे देख वह राज्यलक्ष्मी को उल्का के समान ही क्षणुभंगुर समझने लगा। इसलिए अपनी सुनन्दा रानी के पुत्र सुदृष्टि को राज्यलक्ष्मी देकर उसने सुमन्दिर नामक गुरु के समीप दीक्षा ले ली।
राजा सुप्रतिष्ठित के साथ सूर्य के समान तेजस्वी चार हजार राजाओं ने भी उग्र तप धारण किया था। || मुनिराज सुप्रतिष्ठित ने ज्ञान-दर्शन-चरित्र-तप और वीर्य की वृद्धि से युक्त हो जिनवाणी का गहन अध्ययन || १३
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