________________
| किया तथा सर्वतोभद्र से लेकर सिंहनिष्क्रीड़ित पर्यन्त विशिष्ट तप किए और सोलह कारण भावनायें भाते हुए ||| तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध किया।
सोलह कारण भावनाओं का संक्षिप्त स्वरूप बताते हुए आचार्य कहते हैं कि - १. जिनेन्द्र भगवान द्वारा | कथित रत्नत्रय सहित समीचीन मोक्षमार्ग में नि:शंकित आदि आठ गुणों से सहित श्रद्धा को दर्शनविशुद्धिभावना कहते हैं। २. ज्ञानादि गुणों और उनके धारकों में कषाय को दूरकर महान आदर का भाव विनयसम्पन्नताभावना है। ३. शील व्रतों की रक्षा में मन-वचन-काय की निर्दोष प्रवृत्ति शीलव्रतेष्वनतिचारभावना है। ४. अज्ञाननिवृत्तिरूप फल से युक्त तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदों से सहित ज्ञान में निरन्तर उपयोग रखना अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावना है । ५. जन्म-जरा-मरण तथा रोग आदि शरीरिक और मानसिक दुःखों से युक्त संसार से भयभीत होना संवेगभावना है। ६. शक्ति के अनुसार चार प्रकार का दान देना शक्तित:त्यागभावना है। ७. शक्ति के अनुसार इच्छाओं के निरोधपूर्वक अन्तरंग एवं बहिरंग तपस्या करना शक्तित:तप-भावना है। ८. आगत विघ्नों को नष्ट कर साधु जनों के तप की रक्षा करना साधुसमाधि नामक भावना है। ९. गुणवान साधुजनों के क्षुधा, तृषा व्याधि आदि से उत्पन्न दुःख को प्रासुक द्रव्यों के द्वारा दूर करने की भावना का होना वैयावृत्यभावना है। १०-१३. अरहंतों में अनुराग, आचार्यों में अनुराग बहुश्रुत अर्थात् अनेक शास्त्रों के ज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठी में अनुराग और प्रवचन में जो विनय वह क्रमश: अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति नाम की चार भावनायें हैं।
१४. सामायिक आदि छह आवश्यक क्रियाओं की नियत समय में प्रवृत्ति करना आवश्यकापरिहाणिनामकभावना है। १५. पूजा आदि के द्वारा जिनधर्म की प्रभावना प्रभावना भावना है। १६. गो-वत्स के निःस्वार्थ स्नेह की भांति सहधर्मी भाइयों के प्रति नि:स्वार्थ स्नेह होना वात्सल्य भावना है।
इसप्रकार तीर्थंकर प्रकृति का बंध करनेवाले सुप्रतिष्ठित मुनिराज एक मास तक आहार त्याग कर चारों आराधनाओं की साधना करते हुए बाईस सागर की स्थिति पाकर जयन्त स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वहाँ से चयकर वे राजा समुद्रविजय की रानी शिवादेवी से हरिवंश रूपी पर्वत के शिखर स्वरूप नेमिनाथ नामक २२ वें तीर्थंकर होंगे।
FE_
FE FT
१३