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मुझे जैन साधुओं को देखकर स्वाभाविक आनन्द होता ही है; परन्तु आप दोनों के दर्शन कर आज अपूर्व | आनन्द हो रहा है तथा स्वाभाविक स्नेह उमड़ रहा है, इसका कारण क्या है ?"
दोनों में बड़े मुनि बोले - "हे राजन् ! पूर्वभव का सम्बन्ध ही स्नेह की अधिकता का कारण होता है। मैं पूर्वभव का सम्बन्ध बताता हूँ। ॥ पश्चिम पुष्करार्द्धद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में रुप्याचल की उत्तरश्रेणी में एक गण्यपुर नामक नगर है। | वहाँ का राजा सूर्याभ और उसकी पत्नी धारणी के तीन पुत्र थे - चिन्तागति, मनोगति और चपलगति । उसी समय राजा अरिजंय के यहाँ अनेक विद्याओं की धारक और संसार से विरक्त प्रीतिमति नामक कन्या हुई। उसके माता-पिता उसका विवाह करना चाहते थे; किन्तु प्रतिमति संसार को असार जानकर इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर तप करके आत्मा के कल्याण में लगना चाहती थीं। अपने विशिष्ट कार्य से पिता के प्रसन्न होने पर उसने पिता से वर माँगा तो पिता ने कहा – “तप धारण करने के अलावा तू कोई भी वर माँग, मुझे मंजूर है।" कन्या चतुर थी, उसने कहा जो मुझे गतियुद्ध में हरा देगा, मैं उसी से शादी करूँगी, अन्यथा तप धारण करूँगी। पिता ने उसकी इच्छानुसार स्वयंवर रचा। स्वयंवर में अनेक विद्याधरों के साथ चिन्तागति, मनोगति और चपलगति सम्मिलित हुए। जो अपने नामों के अनुसार ही गति में तेज थे। ___अन्य विद्याधरों ने तो 'प्रीतिमति' की शक्ति को पहचान कर दौड़ने के पहले ही हार मान ली; अन्ततोगत्वा वे तीनों भी पीछे रह गये। प्रीतिमति ही मेरुपर्वत की प्रदक्षिणा देकर मार्ग में जिनप्रतिमाओं की पूजा करती हुई सबसे पहले अग्रिम पंक्ति में आकर खड़ी हो गई और पिता को प्रणाम कर पूजा के शेष अक्षत उन्हें भेंट किए।
तदनन्तर भोगों से विरक्त प्रीतिमती के लिए पिता ने तप धारण करने की अनुमति दे दी। अनुमति पाकर कन्या ने 'निर्वृत्ति' आर्यिका से दीक्षा धारण कर ली। प्रीतिमति के द्वारा पराजित चिन्तागति आदि तीन भाइयों ने भी दमवर मुनिराज के समीप दीक्षा धारण कर ली। आयु के अन्त में तीनों भाई महेन्द्र स्वर्ग में सात सागर की आयु प्राप्त कर सामानिक जाति के देव हुए।
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