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॥ इसीप्रकार जो देव-गुरु-धर्म और तत्त्व का निर्णय किए बिना ही मात्र घर से किसी कारण से उदास
होकर क्रियाकाण्ड में ही धर्म माननेवाला है उसके सम्यग्ज्ञान पूर्वक होनेवाला इन्द्रियसंयम भी कैसे हो सकता | है? जो केवल काय-क्लेश को ही तप मानता हो और मान से भरा हो। उसकी तपस्या मुक्ति का साधन
कैसे हो सकती है? हे तापस ! तुम जानते हो, तुम्हारा पिता मरकर सांप हुआ है और वह इसी अग्नि में जल | रहा है।
आचार्य के इसप्रकार कहने पर तापस वशिष्ठ को एकाएक विश्वास नहीं हुआ। अत: उसने कुल्हाड़ी से उस काष्ठ को चीर कर देखा तो उसके अन्दर अधजला सांप मरणोन्मुख जलन की पीड़ा से तड़फ रहा था, छटपटा रहा था।
आचार्य के कथन से यह सब जानकर वशिष्ठ तापस ने अपनी भूल को महसूस किया कि 'मैं सचमुच अज्ञानी हूँ और जैनधर्म के सिद्धान्त सचमुच ही सुख देनेवाले हैं, जिनमार्ग की साधना अहिंसक है, दयामयी है'- यह बात तापस ने मात्र सिद्धान्त रूप से ही नहीं मानी; बल्कि स्वयं वीरभद्र आचार्य के पास जिनदीक्षा धारण कर आचरण रूप से भी अपनाई। यथासमय आहार प्राप्ति का सहज संयोग बन रहा था; परन्तु उस नवदीक्षित तापस मुनि को लाभान्तराय कर्मोदय से बहुत कम निर्विघ्न आहार हो पाता था। कठोर तपश्चरण करते हुए वह गुरु की आज्ञा से एकल विहारी होकर मथुरा नगर आया।
परन्तु होनहार को कौन टाल सकता है। उस वशिष्ठ तापस ने हिंसाजनक पंचाग्नि तप और पापाचार मूलक तापस की क्रियायें और अहंकार को छोड़ यद्यपि जैनधर्म अपना लिया; मुनिधर्म धारण कर लिया था, मासोपवास करके घोर तप भी कर रहा था, फिर भी होनहार भली न होने से मासोपवास के बाद भी वे मुनि पारणा के लिए आहार के निमित्त नगर में निकलते तो कोई भी उनके पड़गाहना को दरवाजे पर नहीं आता।
यद्यपि सभी नगरनिवासी धार्मिक जन ऐसे मासोपवासी तपस्वी साधु को आहार देना चाहते थे। राजा भी चाहता था कि इतने तपस्वी साधु की पारणा कराकर मैं भी पुण्य लाभ क्यों न लूँ ? किन्तु समय पर वे | भी भूल जाते । मानो दैव वशिष्ठ मुनि (पूर्व तापस) की परीक्षा ही ले रहा हो । मुनि भी अपनी धैर्य की परीक्षा ॥ १३