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________________ (१३५ ह ने कहा कि तू इस तापस को नमस्कार कर ! उसने उसे नकली तापस मानकर नमस्कार नहीं किया तो उन साथिनों ने बलात् उसका माथा तापस के चरणों में झुका दिया। प्रियंगुलतिका ने रुष्ट होकर कहा कि तुमने | मेरा माथा धीवर ( मछुआरे) के चरणों में झुकाया है। यह तापस के वेष में धीवर है । रि वं 5 5 श क प्रियंगुलतिका के कथन से वह तथाकथित तापस नाराज होकर राजा उग्रसेन के दरबार में गया और उस | प्रियंगुलतिका पनिहारिन की शिकायत करते हुए बोला- इसने मेरा अपमान किया है। प्रियंगुलतिका से पूछने पर उसने स्पष्ट कह दिया कि यह तापस नहीं धीवर ही है। इसकी जटायें खुलवा कर देखिये - सब | राज स्वत: ही खुल जायेगा । तापस की जटायें खुलवायी गयीं तो बहुत-सी छोटी-छोटी मछलियाँ निकली, जो उसके धीवर होने का प्रमाण दे रही थीं । राजा ने उसकी अन्य तरह से भी परीक्षा की तो उसका नकलीपना प्रगट हो गया। फलस्वरूप वह उग्रसेन | के दरबार में अपमानित होकर मथुरा छोड़कर बनारस चला गया। वहाँ गंगा के किनारे वैसा ही पाखण्ड पूर्ण तप तपने लगा । - कं वशिष्ठ ने सुना तो पूछा "मैं अज्ञानी हूँ' यह आप कैसे कह सकते हैं ? आचार्य ने कहा - तुम पंचाग्नि तप द्वारा पाँच स्थावर और त्रस - ऐसे छहकाय के जीवों की हिंसा करते हो । उन्हें पीड़ा पहुँचाते हो, उनके प्रति तुम्हारे हृदय में दया नहीं है । इसलिए अज्ञानी हो । उस तप में अग्नि के संसर्ग से पाँच इन्द्रिय वाले जीव तक तड़फ तड़फ कर जलते हुए प्राण छोड़ देते हैं। पृथ्वी, जल, | वायु, वनस्पति और कीड़े-मकोड़े के प्राण घात होने से प्राणीसंयम कैसे पल सकता है ? som 45 स एक दिन वहाँ आपने पाँच सौ शिष्यों के साथ वीरभद्र मुनिराज (आचार्य) आये। उनके संघ के एक | नवदीक्षित मुनि ने उसी नकली तापस वशिष्ठ की तपस्या देख समझा कि यह सच्चा तपस्वी है । अत: उसकी की ब तपस्या की प्रशंसा की। तापस के नकली रूप को आचार्य वीरभद्र पहचान गये अतः उन्होंने उन्हें प्रशंसा करने से रोका और कहा कि "अज्ञानी के तप कैसा ?" ह न ए स व की १२
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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