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________________ मूर्खता है। तू यह निश्चित समझ कि इस देवकी के गर्भ से जो पुत्र होगा, वह तेरे पति कंस और पिता जरासंध को मारनेवाला होगा। यह होनहार अटल है, इसे कोई बदल नहीं सकता। यह सुनते ही जीवद्यशा भयभीत हो उठी। उसके नेत्रों से आँसू निकलने लगे। वह उसीसमय मुनिराज को छोड़ पति के पास गई और मुनि के वचन सत्य ही निकलते हैं। यह विश्वास जमाकर उसने पति कंस को सब समाचार कह सुनाये। पत्नी के मुख से यह सब समाचार सुनकर कंस को भी शंका हो गई। वह तीक्ष्णबुद्धि तो था ही, इसकारण शीघ्र ही उपाय सोचकर अपने गुरु सत्यवादी वसुदेव के पास गया और चरणों में झुककर अपना धरोहर के रूप में रखा वर माँगा। वसुदेव ने कहा - ठीक है, कहो क्या चाहते हो? कंस ने कहा - प्रसूति के समय देवकी मेरे ही घर में रहे अर्थात् उनका प्रत्येक प्रसव मेरे घर पर ही हो। वसुदेव को इस वर माँगने के पीछे कंस की खोटी नियत और प्रयोजन का कुछ भी पता नहीं था। भाई के घर में बहिन को कोई खतरा या अनर्थ भी हो सकता है, यह शंका भी तो नहीं की जा सकती थी। इस कारण उन्होंने बिना विचार किए ही कंस को उसका माँगा वर दे दिया। पीछे वसुदेव को इस राज का पता चला - तो उनका हृदय पश्चाताप से बहुत दुःखी हुआ। वे उसीसमय |चारणऋद्धिधारी अतिमुक्तक मुनिराज के पास गये और साष्टांग नमस्कार प्रणाम करके देवकी के सम्बन्ध में पूछा - हे भगवन् ! कंस ने पूर्व जन्म में ऐसा कौन-सा कर्म किया, जिससे वह दुर्बुद्धि अपने पिता का ही शत्रु हो गया ? और देवकी से उत्पन्न पुत्र इस पापी कंस का घात करनेवाला कैसे होगा ? अतिमुक्तक मुनिराज अवधिज्ञानी थे। उन्होंने अवधिज्ञान से जानकर कहा कि - हे राजन् ! इसी मथुरा नगरी में जब राजा उग्रसेन राज्य करता था। तभी पंचाग्नि तप तपनेवाला एक वशिष्ठ नामक अज्ञानी तापस यहीं यमुना नदी के किनारे तप तपता था। वहीं नदी किनारे पनिहारिनें पानी भरने आती थीं। एक दिन जिनदास सेठ की प्रियंगुलतिका नामक नौकरानी भी वहाँ पानी भरने के लिए गई। उससे उसकी साथिनों १२
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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