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________________ १२८ ह रि वं श क 155 था व दे वसुदेव के गर्वोक्ति युक्त वचन सुनकर उनका माध्यस्थ भाव समाप्त हो गया और वे युद्ध को तत्पर हो गये और उन्होंने जितने भी बाण चलाये, वसुदेव ने एक-एक का निराकरण करके उन्हें अपने धनुष कौशल का परिचय करा दिया। अन्त में समुद्रविजय के रथ और सारथी को भी छिन्न-भिन्न कर दिया। यह देख | समुद्रविजय ने क्रोधावेश में वसुदेव पर हजारों अस्त्रों से युक्त दिव्य रौद्रास्त्र छोड़ा; परन्तु कुमार वसुदेव ने भी उन अस्त्रों को आच्छादित करनेवाला ब्रह्मशिर नामक अस्त्र छोड़कर बड़े भाई के द्वारा छोड़े उस रौद्रास्त्र को | बीच में ही काट डाला । वसुदेव का संग्राम में अस्त्र-शस्त्र चलाने का कौशल परम प्रशंसनीय था; क्योंकि उन्होंने नाना प्रकार | के शस्त्रों को तो काट दिया था; किन्तु अपने बड़े भाई को सुरक्षित रखा था । इसप्रकार रणक्रीड़ा करते-करते भ्रातृ स्नेह से भरे हृदय से वसुदेव ने बड़े भाई के पास एक पत्र के साथ अपना बाण भेजा जो कि मन्दगति से जाकर बड़े भाई के चरणों में गिरा। उसे उठाकर जब समुद्रविजय ने उसे पढ़ा तो वे गद्गद् हो गये। बाण में लिखा था - “हे अग्रज ! मैं वहीं आपका छोटा भाई वसुदेव हूँ | जो अज्ञात रूप से निकल गया था । सौ वर्ष बीत जाने के बाद मैं आज आत्मीयजनों के पास आया हूँ । हे आर्य! मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ । बस, यह जानते ही समुद्रविजय ने अपने अनुसंधित बाण को तोड़कर फैंक दिया और शीघ्र रथ से उतरकर छोटे भाई के पास पहुँचे । इधर वसुदेव भी शीघ्र ही रथ से उतरकर उनके चरणों में नत मस्तक हो गये। समुद्रविजय ने उन्हें उठाकर गले लगा लिया। दोनों भाई भावुक हो गये और दोनों की आँखों से प्रेमाश्रुओं की धारा बहने लगी। उसी | समय शेष भाई भी आ गये । गत सौ वर्षो में विजयश्री के साथ जो शादियाँ हुई थीं, उनके रिश्तेदार राजागण | भी युद्धभूमि में उससमय उपस्थित थे, वे सब भी वसुदेव से बहुत प्रभावित हुए। जरासंध आदि राजा भाइयों औ र ग्र ज 15 tar 40 15 मु द्र य का मि ल न (११
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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