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नहीं करना चाहते थे; तथापि राजा जरासंध की आज्ञा से तैयार हो गये; क्योंकि युद्ध के विषय में न्याय | के वेत्ता भी अपने स्वामी का ही अनुसरण करते हैं।
समुद्रविजय उस समय यह नहीं जानते थे कि कुमार वसुदेव मेरा ही छोटा भाई है, परन्तु वसुदेव जानते थे कि ये मेरे बड़े भाई हैं। अतः समुद्रविजय के तेजी से आते हुए रथ को देख वसुदेव ने अपने सारथी को आदेश दिया - "इन्हें तुम मेरा बड़ा भाई समझो। हे दधिमुख! ये हमारे पितातुल्य पूज्य हैं, अत: इनके आगे रथ धीरे-धीरे ले जाना है। मुझे रणभूमि में इनकी रक्षा का ध्यान रखते हुए ही युद्ध करना है।"
सारथी दधिमुख ने वसुदेव की आज्ञानुसार ही रथ चलाया। उधर समुद्रविजय ने अपने सारथी से कहा - "हे भद्र! इस योद्धा को देखकर मेरा मन स्नेहयुक्त क्यों हो रहा है? दाहनी आँख एवं भुजा भी भड़क रही है। पुरुष की दाहनी आँख भड़कना तो बन्धु समागम को सूचित करनेवाली होती हैं; परन्तु युद्ध के मैदान में इस शकुन की संगति कैसे बैठ सकती है?"
सारथी ने कहा - "स्वामिन ! अभी आप शत्रु के सामने खड़े हैं जब इसे आप जीत लेंगे तब अवश्य ही बन्धु समागम होगा। हे राजन! यह शत्रु दूसरों के द्वारा अजेय हैं। अतः इसके जीत लेने पर आप राजाओं के समक्ष राजाधिराज जरासंध से अवश्य ही विशिष्ट सम्मान को प्राप्त करेंगे।"
समुद्रविजय ने सारथी के वचनों को स्वीकार कर युद्ध के लिए तैयार होकर वसुदेव से कहा - "हे धीर! अभी-अभी युद्ध में तुम्हारे धनुष का जैसा कौशल देखा, अब मेरे आगे वैसे ही उसकी पुनरावृत्ति करके दिखाओ तो जानें ! हे शूरवीरता के शिखर ! तुम्हारा अत्यन्त उन्नत मानरूपी शिखर जो अभी तक अनाच्छादित रहा है, मैं उसे बाणरूपी मेघों से अभी आच्छादित करता हूँ। तुम मुझे नहीं जानते 'मैं समुद्रविजय हूँ, समुद्रविजय ! समझे!
कुमार वसुदेव ने आवाज बदलते हुए कहा - 'यदि आप ‘समुद्रविजय हैं तो मैं संग्रामविजय हूँ। यदि आपको विश्वास न हो तो शीघ्र ही धनुष पर बाण चढ़ाकर छोड़िए।
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