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| धीर-वीर वसुदेव ने क्षुभित राजाओं से कहा कि - "स्वयंवर में आई हुई कन्या अपनी इच्छानुसार वर
को वरती है, अतः इस विषय में किसी को भी अशान्ति फैलाना और स्वयं दुःखी होना योग्य नहीं है; फिर रि | भी यदि किसी को अपने किसी भी प्रकार के बड़प्पन पर गर्व है तो मैं उसकी चुनौती स्वीकार करने के लिए
भी तैयार हूँ।"
कुमार वसुदेव की गर्वोक्ति सुनकर राजा जरासन्ध कुपित हो उठा। अपने अधीनस्थ राजाओं को आदेश दे दिया कि - "वसुदेव एवं कन्या के भाई और पिता को बन्दी कर लिया जाय। “कुछ राजा जो पहले से ही वसुदेव से असंतुष्ट (कुपित) थे, वे भी जरासंध का आदेश पाकर युद्ध के लिए उद्यत हो गये और भयंकर घमासान युद्ध हुआ। एक ओर अकेले धीर-वीर वसुदेव और दूसरी ओर जरासंघ के साथ अनेक राजा और उनके साथ में आई हुई उनकी सभी तरह की सशस्त्र सेना। फिर भी वसुदेव ने अमोघ पराक्रम से सबके छक्के छुड़ा दिये।
कुछ सज्जन जो न्याय नीतिज्ञ थे, उन्होंने कहा - "यह अन्यायपूर्ण युद्ध हमें तो देखने योग्य भी नहीं है; क्योंकि यह युद्ध एक का अनेक के साथ हो रहा है। एक पर अनेक प्रहार कर रहे हैं, इस कारण यह अन्यायपूर्ण है।"
तदनन्तर धर्मयुद्ध का प्रस्ताव लाते हुए जरासंध ने कहा - "कन्या के लिए इसके साथ एक-एक राजा युद्ध करें। जरासंध का आदेश पाकर सर्वप्रथम शत्रुजय कुमार युद्ध करने उठा। वसुदेव ने उसके चलाये बाणों को दूर फेंक कर उसका रथ और कवच तोड़कर उसे मूर्च्छित कर दिया। इसके बाद क्रमशः दत्तवस्त्र, कालमुख, और शल्य जैसे एक से एक पराक्रमी राजा आये; परन्तु वसुदेव के सामने कोई नहीं टिक सका।
इसके बाद राजा जरासंध ने भी नेमिनाथ के पिता समुद्रविजय से कहा - "हे राजन ! आप सब तरह || से समर्थ हैं, अतः आप इसके अहंकार को नष्ट करो।" यद्यपि समुद्रविजय न्याय-नीति के वेत्ता थे, युद्ध
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