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के इस समागम को देखकर बहुत हर्षित हुए। रोहणी के पिता, भाई तथा अन्य सम्बन्धी जन उसकी बहुत व प्रशंसा करने लगे ।
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सब राजा शाम को जब अपने शिविरों में विश्राम हेतु पहुँचे तो वहाँ भी वीर वसुदेव की ही चर्चा करके दे खुश होकर अपनी रात्रि का समय सुख से बिता रहे थे। तत्पश्चात् वसुदेव ने शुभ नक्षत्र में रोहणी के साथ विधिपूर्वक विवाह किया। जरासंध और समुद्रविजय आदि राजा उस विवाहोत्सव को देखकर बहुत ही औ
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प्रसन्न हुए ।
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यहाँ आचार्य यह बताना चाहते हैं कि जिन्होंने पूर्व में वीतराग धर्म की साधना / आराधना करके आत्म विशुद्धि के साथ शुभभावों से विशेष पुण्यार्जन किया है, वह अकेला और निहत्था-शस्त्र रहित होकर भी अच्छे-अच्छे सशस्त्र शूरवीरों को परास्त कर देता है।
अतः जो भी लौकिक जीवन को यशस्वी और सुखद बनाने के साथ पारलौकिक दृष्टि से अपना कल्याण | करना चाहते हैं, उन्हें जिनेन्द्र कथित वस्तु स्वातंत्र्य जैसे सिद्धान्तों को समझना चाहिए और इसके लिए सर्वप्रथम श्रुतज्ञान के आलम्बन से अर्थात् शास्त्र स्वाध्याय के द्वारा अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय करके पर की प्रसिद्धि की हेतुभूत अर्थात् जो मात्र पर का ही परिचय करा सकती हैं- ऐसी पाँचों इन्द्रियों के भोगपक्ष और ज्ञेयपक्ष को जीतना चाहिए; क्योंकि ये पाँचों ही इन्द्रियाँ हमें भोगों में उलझा कर पापोपार्जन में कारण तो बनती ही हैं और पर को जानने में उलझा कर स्वयं को जानने से वंचित रखती हैं। इसतरह ये हमारा अमूल्य समय और शक्ति भी बर्बाद करती हैं।
आत्मा का हित तो आत्मा के जानने में है, अतः यदि मन को मर्यादा में रखना है तो मन के विकल्पों को भी आत्मा के अवलम्बन से तथा वस्तुस्वरूप की समझ से नियंत्रित करना चाहिए ?
यद्यपि प्रस्तुत कथाग्रन्थ में वसुदेव के चरित्र में हमें उठा-पटक और भोगों की प्रधानता ही अधिक | दृष्टिगोचर होती है; किन्तु वे ज्ञानी थे; उनकी दिनचर्या में नित्य वीतरागी, निर्ग्रन्थ गुरुओं की उपासना,
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