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________________ अवधिज्ञान से ज्ञात हुआ कि "मैं उसी ऋषिदत्ता का जीव हूँ, जो छोटे से बालक को जन्म देकर, मरकर | यह नागदत्ता हुई हूँ। अतः वह नागकुमारी दया और स्नेह के वशीभूत हो पिता और पुत्र के तपोवन में गई। वहाँ शोक संतप्त मात-पिता को आश्वस्त करके और अपने पूर्वभव के पुत्र को मृगी का रूप धर कर दूध पिला-पिला कर बड़ा किया। तत्पश्चात् तापसी का वेश धरकर और उस पुत्र को लेकर पूर्वभव के पति राजा शीलायुध के पास गई। राजा शीलायुध विभूति सम्पन्न और नीतिज्ञ था । नागकुमारी देवी द्वारा पुत्र प्राप्त होने का रहस्यमय वृतान्त जानकर वह प्रसन्न हुआ और उसने पुत्र को युवराज के रूप में स्वीकार कर लिया। पुत्र का नाम एणीपुत्र था। पूर्वपर्याय के पुत्र के मोहवश नागकुमारी देवी होकर भी उसकी रक्षा में तत्पर रही। पिता के स्वर्गवासी होने पर एणीपुत्र राजा बना। कालान्तर में उस एणीपुत्र के एक सर्वगुण सम्पन्न प्रियंगुसुन्दरी कन्या हुई। एणीपुत्र ने उसका स्वयंवर किया; किन्तु काम-भोग से विरक्त प्रियंगुसुन्दरी ने उस समय तो सर्व आगंतुक राजकुमारों को निरस्त कर दिया; पर जब उसने बन्धुमती के साथ कुमार वसुदेव को देखा तो उसका मन उसकी ओर आकृष्ट हो गया। अन्ततः कामदेव के मन्दिर में वसुदेव और प्रियंगुसुन्दरी का समागम हो गया और वे श्रीवास्ती नगरी में बहुत समय तक दाम्पत्य सुख भोगते रहे। वसुदेव ने नागकुमारी से यह सब पूर्वभव के संस्कारों से चले आये संबंध को जाना और उससे उत्पन्न स्नेहवश जब नागकुमारी द्वारा अपने योग्य सेवा करने हेतु स्मरण करने को कहा गया तो वसुदेव ने यह कहा - "जब मैं याद करूँ, तब तुम मेरा ध्यान रखना।" 'एवमस्तु' कहकर वह नागकुमारी चली गई। इसप्रकार वह ऋषिदत्ता जो मरकर वल्लभा नामक नागकुमारी हुई, उसने वसुदेव को प्रियंगुसुन्दरी तथा उसके पिता एणीपुत्र एवं माँ ऋषिदत्ता आदि का परिचय दिया। ये कथानक पाठकों को जीवों की विचित्र परिणति और संसार की असारता का संदेश देते हैं, जिनकी भली होनहार होती है, वे सुलट भी जाते हैं। इसतरह ये पौराणिक कथायें भी जीवों के कल्याण की कारण बनती हैं। यही मंगल भावना है कि पाठक विचित्र वस्तुस्थितियों से प्रेरणा पाकर अपना कल्याण करें। .॥१०
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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