SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर रीझा था, अतः वह भी राजा अमोधदर्शन के पास गया और स्वयं के लिए उसकी याचना करने लगा; | किन्तु कामपताका को तो अमोघ का पुत्र चारुचन्द्र पहले ब्याह चुका था। इसकारण कन्या न मिलने से ऋषि कौशिक को बहुत क्लेश हुआ और उसने न केवल संकल्प किया बल्कि संकल्प को प्रगट भी कर दिया कि - 'मैं साँप बनकर अमोघदर्शन को डसूंगा।' | ऋषी कौशिक के संकल्प अनुसार राजा अमोघ ने अपनी अल्प आयु शेष मानकर जिनदीक्षा ले ली और अपनी गर्भवती रानी चारुमती को तपस्वियों के आश्रम में भेज दिया। वहाँ रानी ने ऋषिदत्ता कन्या को जन्म दिया। एक बार उस कन्या ने १२ वर्ष की उम्र होने पर चारण ऋद्धिधारी मुनि के पास ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया, परन्तु धीरे-धीरे यौवन को प्राप्त होने पर उसके रूप-लावण्य से पुरुषों के मन मोहित होने लगे। एक बार शीलव्रतधारी राजा शीलायुध तपस्वियों के उस आश्रम में पहुँचा, जहाँ ऋषिदत्ता रहती थी। ऋषिदत्ता ने उसे भोजन कराकर आदर सत्कार किया। कन्या सुन्दर तो थी ही, एक-दूसरे पर आकर्षित हो गये और दोनों ने अपनी-अपनी शीलव्रत की मर्यादा तोड़ दी। इसीलिए तो ज्ञानी कहते हैं, व्रतों को धारण करने की जल्दी मत करो। परिपक्व होकर भूमिका के अनुसार जो व्रत होंगे वे ही निर्दोष पलेंगे। व्रत न लेने का कम दोष है और व्रतों को भंग करना महापाप है; परन्तु जिसकी जैसी होनहार हो उसे कौन टाल सकता है।" शीलव्रत भंग होने पर ऋषिदत्ता ने राजा शीलायुध से पूछा - मैं ऋतुमति हूँ, यदि गर्भवती हो गई तो मुझे क्या करना होगा? राजा शीलायुध ने कहा - "मैं श्रीवास्ती का राजा हूँ। तुम पुत्र जन्म होने पर श्रीवास्ती आकर मुझसे मिलना" - ऐसा आश्वासन देकर वह प्रस्थान करने वाला ही था कि उसकी सेना आश्रम में आ पहुँची। सेना को देख वह बहुत संतुष्ट हुआ और सेना के साथ नगर को लौट गया। राजा के चले जाने के बाद लोक व्यवहार में निपुण ऋषिदत्ता ने लज्जा छोड़कर राजा के साथ हुए सम्बन्ध का वृतांत माता-पिता से कह दिया । यह भी कह दिया कि “मैं गर्भवती हो गई हूँ।" वह ऋषिदत्ता प्रसूति करते ही मर गई और स्वर्ग में वल्लभा नाम की 'नागकुमारी' देवी हुई। उसे देव पर्याय में भवप्रत्यय १०
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy