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________________ । कुमार वसुदेव ने कहा - एकबार मैं श्रीवास्ती नगरी में जा पहुँचा । मैंने वहाँ जिनमन्दिर के आगे मृगध्वज केवली की प्रतिमा और महिष की मूर्ति देखी, जो कभी कामदत्त सेठ ने स्थापित की थीं। जनता के आकर्षण के लिए सेठ ने एक कामदेव एवं रति का चित्ताकर्षक, मनमोहक मन्दिर भी बनवाया था । जनसमूह कामदेव-रति के मन्दिर के आकर्षण से आते और साथ में जिनमन्दिर के दर्शन भी करते तथा मृगध्वज केवली और महिष (भैंसे) की मूर्तियाँ देखकर उनके विषय में जानने की जिज्ञासा से उनका वृत्त भी सुनते । केवली के पूर्व वृतान्त को सुनकर स्वयं केवली होने की भावना से भर जाते । वे सोचते, 'जब मृगध्वज केवली हो सकते हैं तो हम क्यों नहीं?' इसतरह मृगध्वज केवली और महिष के वैराग्य प्रेरक पूर्वभवों का वृतान्त सुनकर संसार की विचित्रता से विरक्त होकर अनेकों स्त्री-पुरुष प्रतिदिन आत्मकल्याणकारी जिनधर्म को धारण कर लेते। ___ यह पूरा जिनमन्दिर प्रांगण 'कामदेव के मन्दिर' के नाम से प्रसिद्ध था और इसे देखने के कौतुकवश आये लोगों को मृगध्वज केवली का दर्शन जिनधर्म की प्राप्ति का कारण बनता था।" उपर्युक्त कथन से ऐसा सिद्ध होता है कि जिन प्राचीन जिनमन्दिरों में अन्य देवी-देवताओं के आकर्षक रागात्मक चित्र उकेरे हुए मिलते हैं अथवा मूर्तियाँ मिलती हैं, उनके पीछे तत्कालीन राग-रंग में मस्त जनों को आकर्षित करने मात्र का पावन उद्देश्य रहा होगा, न कि इन्हें पूजने/मानने का। धीरे-धीरे लोग उस मूल उद्देश्य से भटक गये और इन्हें ही देव-देवियों के मनोरथों की पूर्ति का साधन मानकर इन्हीं की पूजा करने लगे। अस्तु : उसी कामदत्त सेठ के वंश में अनेक पीढ़ियों के बाद कामदेव' नामक एक सेठ भी हुआ। उसकी || बन्धुमती नाम की एक कन्या थी, जो निमित्त ज्ञानी की घोषणा के अनुसार कामदत्त सेठ द्वारा वसुदेव को ||१०
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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