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११७ || जीते, उन्हें मर्यादा में ले । एतदर्थ बारह अणुव्रत धारण करे। और क्रम-क्रम से ग्यारह प्रतिमाओं को धारण | करते हुए आत्म साधना के मार्ग पर अग्रसर होवे । जैसे-जैसे अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ बढ़ता जाये। कषायें कृष र होतीं जायें, निर्दोष २८ मूलगुण पालन की शक्ति हो जाये, तब मुनिव्रत धारण की योग्यता आती है; क्योंकि वं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के सदोष तपस्वी होना कल्याण का मार्ग नहीं है; बल्कि हानिकारक ही हैं। यद्यपि तापस होना अति उत्तम है; क्योंकि मुनि हुये बिना न तो आज तक किसी को मुक्ति मिली है और न मिलेगी, | किन्तु जल्दबाजी में अज्ञानतप करने से कोई लाभ नहीं होता । अतः मोक्षमार्ग में समझपूर्वक ही अग्रसर होना चाहिए । अन्यथा अपना तो कोई लाभ होता नहीं, तापस पद भी बदनाम होता है ।
तापसों ने पूछा
"ये निश्चय मोक्षमार्ग क्या हैं। बारह व्रत क्या हैं, कृपया बतायें?
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वसुदेव ने कहा- हाँ, सुनो- सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षमार्ग तो वस्तुतः एक ही है, किन्तु इसका कथन दो प्रकार से है एक निश्चय मोक्षमार्ग और दूसरा व्यवहार मोक्षमार्ग। जो वस्तु जैसी है, उसका उसी रूप में निरूपण करना अर्थात् सच्चे मोक्षमार्ग को मोक्षमार्ग कहना, वह निश्चय मोक्षमार्ग है, और जो मोक्षमार्ग तो है नहीं, परंतु मोक्षमार्ग का निमित्त व सहचारी है, उसे निमित्तादि की अपेक्षा किसी को किसी में मिलाकर उपचरित कथन करना व्यवहार मोक्षमार्ग है। जैसे- मिट्टी के घड़े को मिट्टी का कहना निश्चय और घी का संयोग देखकर उपचार से उसे घी का घड़ा कहना व्यवहार है। शेष फिर कभी.....
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