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________________ को युद्ध करने को ललकारा; परन्तु एणीपुत्र की अजेय शक्ति के सामने उनमें कोई नहीं टिक सका । सब | इधर-उधर तितर-बितर होकर छिप गये। हम भी उन्हीं में से हैं जो यहाँ तापसों के रूप में रह रहे हैं । वस्तुतः हम तापस नहीं हैं । इसकारण हम तप, संयम और आत्मा-परमात्मा के स्वरूप का एवं उनकी साधनाआराधना के बारे में कुछ भी नहीं जानते । आपकी बातों से ज्ञात होता है कि आपको तत्त्वज्ञान है, अतः यदि संभव हो तो आप हमें तत्त्वज्ञान का उपदेश दीजिए, धर्म का स्वरूप समझाइए, जिससे हम सच्चे तापस बनकर आत्मा का कल्याण कर सकें। अब हमें संसार की क्षण भंगुरता और लौकिक सुखों की असारता का था आभास तो हो गया है। अतः अब हम आत्मकल्याण ही करना चाहते हैं। घर वापिस नहीं जायेंगे । अतः इसी | विषय में कुछ हितोपदेश दीजिए । वेषधारी उन तपस्वियों के निवेदन पर कुमार वसुदेव ने संक्षेप में जो मार्गदर्शन दिया, वह इसप्रकार है“हे तपस्वियो ! तुमने यह उत्तम विचार किया कि संसार की असारता को जानकर आत्महित में लगने का निर्णय लिया है। सचमुच जीवन में यदि कुछ करने लायक है तो एकमात्र यही है । सबसे पहले शास्त्र स्वाध्याय द्वारा ज्ञानस्वभावी निज आत्मतत्त्व का निर्णय करना चाहिए तथा भेदज्ञान करने के लिए जीव और अजीव को भिन्न जानना फिर आत्मा और देह की भिन्न प्रतीतिपूर्वक देहादि जितने भी परद्रव्य हैं, उनसे जैसे जैसे अनुराग कम होता जाये, तदनुसार व्रतों का पालन करते हुए जब अनन्तानुबंधी अप्रत्याख्यान और ने प्रत्याख्यान की चौकड़ी नष्ट हो जायें, कषायें कृष होती जायें, २८ मूलगुण निर्दोष पालन की शक्ति प्रगट हो जाये तो आचार्य से विधिपूर्वक दीक्षा लेना । दीक्षा के पूर्व एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व के भाव का अभाव हो जाता है तथा छह द्रव्यमय जो यह विश्व है, इसकी सब व्यवस्था स्वतः स्वसंचालित है। इस लोक को न किसी ने बनाया है, न कोई इसका विनाश कर सकता है - ऐसी श्रद्धा प्रगट हो जाती है। ११६ ह रि वं श क 55 इसके लिए सर्वप्रथम सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की शरण में रहकर वीतरागी देव और निर्ग्रन्थ के बताये | मोक्षमार्ग को यथार्थ जानें, पहचानें फिर पर की प्रसिद्धि की हेतुभूत पाँचों इन्द्रियों और मन के विषयों को मु 94 1 1 5m 51st 45 नि व्र त धा र ण क र की पा त्र ता
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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