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जिनधर्म उपासक मोक्षप्राप्त तो करता ही है; किन्तु जब अपने सम्यक् पुरुषार्थ की अपूर्णता के कारण मुक्ति का लाभ नहीं ले पाता, तब तक संसार में भी अपने जिनधर्म की आराधना से प्राप्त पुण्यप्रताप से लौकिक अनुकूलतायें एवं मनोवांछित कामों में सफलता प्राप्त करता है।
नमि के वंश में अरिंजयपुर का एक मेघनाद नामक राजा हुआ। उसके एक पद्मश्री नाम की कन्या थी। उस कन्या के विषय में निमित्त ज्ञानी ने बताया कि - 'यह चक्रवर्ती की पत्नी होगी।' जबकि बज्रपाणि राजा इस कन्या के साथ शादी करने की याचना मेघनाद से अनेक बार कर चुका था। जब उसे निराश होना पड़ा तो वह नाराज हो गया। क्रोधित होकर युद्ध किया; परन्तु युद्ध में जीतना उसके वश की बात नहीं थी, इस कारण वह वापिस चला गया।
यद्यपि पद्मश्री के भविष्य की घोषणानुसार हस्तिनापुर नगर में कौरववंश में उत्पन्न हुआ कार्तिकेय का पुत्र सुभौम चक्रवर्ती ही पद्मश्री का पति हुआ; परन्तु परसुराम के पिता तपस्वी जमदाग्नि की कार्तिकेय ने कामधेनु के लोभवश मार डाला था, इसकारण परशुराम ने क्रोधवश पिता का घात करनेवाले कार्तिकेय को मार डाला फिर भी उसका क्रोध शान्त नहीं हुआ। इसलिए उसने सारी पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करने की चोटी में गाँठ लगाकर प्रतिज्ञा कर ली।
कार्तिकेय की पत्नी तारा गर्भवती थी, उसकी कूँख में ही भावी चक्रवर्ती सुभौम पल रहा था। उसकी सुरक्षा हेतु तारा कौशिक ऋषि के आश्रम में जा पहुँची और वहाँ सुभौम उत्पन्न हुआ। आगे चलकर उसने परशुराम का वध करके क्षत्रियों को निर्भय तो किया ही, पद्मश्री का पति भी सुभौम ही बना। परशुराम ने अपनी प्रतिज्ञानुसार सात बार क्षत्रियवंश को निर्मूल करने का प्रयत्न किया था; परन्तु ऐसी प्रतिज्ञाएँ करना || ७
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