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________________ १०७ ह १५. क. पागलपन ही है; क्योंकि जब परमाणु- परमाणु में प्रतिसमय होनेवाला परिणमन स्वतंत्र है तो इतना बड़ा परिवर्तन करना मिथ्या अहंकार ही है । वं जब सुभौम चक्रवर्ती बना तो बदले की भावना से उसने भी सम्पूर्ण ब्राह्मण वर्ग को इक्कीस बार नष्ट | कर पृथ्वी को ब्राह्मण रहित करने का असफल प्रयत्न किया । चक्रवर्ती सुभौम साठ हजार वर्ष जीवित रहा | और वृथा कर्तृत्व के मिथ्या अहंकार और भोगप्रधान चक्रवर्ती पद रहते हुए ही मरण को प्राप्त होने से सातवें क नरक में गया। था श दधिमुख ने वसुदेव से आगे कहा - "राजा मेघनाद की संतति में आगे चलकर छठवाँ राजा बलि हुआ । राजा बलि विद्याबल में प्रवीण था और तीन खण्ड का स्वामी अर्द्धचक्री ( प्रतिनारायण ) था । उसी समय बलभद्र के रूप में नन्द और नारायण के रूप में पुण्डरीक हुए। इन्हीं दोनों के द्वारा बलि मारा गया । बलि के वंश में सहस्त्रग्रीव, पंचशत ग्रीव और द्विशतग्रीव आदि बहुत से विद्याधर राजा हो गये। उनमें एक विद्युद्वेग नामक राजा हुए, वे ही हमारे पिता एवं आपके श्वसुर हैं। नमस्तिलक नगर का राजा त्रिशिखर अपने सूर्यक नामक पुत्र के लिए हमारी बहिन मदनवेगा को मांग | चुका था; परन्तु वह इसे पा नहीं सका, इसकारण वैर रखता था। एक दिन अवसर पाकर युद्ध छेड़कर उसने | हमारे पिता को कारागृह में बन्द कर दिया। अब हमारे सौभाग्य से आप हमें सुलभ हो गये हैं, अतः आप | शीघ्र ही हमारे पिताश्री को मुक्त करायें। सुभौम चक्रवर्ती ने जो हमें अस्त्र-शस्त्र दिए थे, उन्हें आप ग्रहण कीजिए। " (So उस समय बल के अभिमान में त्रिशिखर स्वयं ही सेना के साथ चण्डवेग के नगर आ पहुँचा । 'जिसे जाकर बाँधना था, वह स्वयं ही पास आ गया' यह विचारकर सन्तुष्ट होते हुए वसुदेव विद्याधरों के साथ म च क्र इसप्रकार दधिमुख के कहे वचन सुनकर प्रतापी वसुदेव ने श्वसुर विद्युतवेग को छुड़ाने के लिए विचार व किया । चण्डवेग ने युवा वसुदेव को बहुत से देवों द्वारा रक्षित विद्या अस्त्र प्रदान किए। र्ती
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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