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| - यों ही, गर्मी है न? उसे शान्त करने हेतु बाहर चली गई थी। वह प्रतिदिन कुमार के सो जाने के बाद अपने असली रूप में ही सोती थी, और उनके जागने के पहले जाग जाती थी। एक दिन कुमार उससे पहले जाग गये तो उन्होंने उसका असली रूप देख लिया। इससे वे आश्चर्य में पड़ गये। उन्होंने उसके जागने पर | पूछा - तुम वास्तव में हो कौन ? और ऐसा क्यों किया?
उसने अपने पिता का परिचय देते हुये अपना नाम वेगवती बताया। और कहा - मेरा भाई मानसवेग सोमश्री को हरकर अपने नगर ले गया, वहाँ वह अभी भी शील का आलम्बन लेकर विद्यमान है। मानसवेग ने उसे राजी करने के लिए मुझे सौंपा था, पर मैं उसे तो राजी नहीं कर सकी, किन्तु आपसे प्रभावित होकर आपको पाने के लिए मैंने आपकी पत्नी का रूप धर लिया।"
इसप्रकार वेगवती ने कुमार वसुदेव को सब समाचार बताकर कुमार के निर्देशानुसार सोमश्री के पिता तथा भाई को भी उसके अपहरण के समाचार सुनाये। जिन्हें सुनकर वे सब खेद-खिन्न हुए। वेगवती भी कुमार के द्वारा पत्नीरूप में स्वीकृत होने से प्रसन्न हो गई।
एक दिन कुमार वेगवती के साथ सो रहे थे कि - वेगवती का भाई वही मानसवेग विद्याधर कुमार वसुदेव को सोते में ही हरकर ले गया। जागने पर कुमार वसुदेव ने उसकी बहुत पिटाई की। भयभीत होकर उसने वसुदेव को गंगा नदी में गिरा दिया। संयोग से वे नदी में साधना कर रहे एक विद्याधर के कंधे पर गिरे। उनके गिरते ही उस साधना में लीन विद्याधर की मनोवांछित विद्या सिद्ध हो गई। विद्या सिद्ध होने पर - वह विद्याधर तो वसुदेव को प्रणाम कर उनका आभार मानता हुआ चला गया; परन्तु विद्याधर कन्या उन्हें वहाँ से विजयार्द्ध पर्वत पर ले गई। वसुदेव के वहाँ पहुँचते ही वहाँ के विद्याधरों ने पाँच रंगों के पुष्पों की वर्षाकर उनका खूब स्वागत किया और मदनवेगा नाम की कन्या से उनका विवाह कर दिया। वसुदेव वहाँ
भी बहुत काल तक सुखपूर्वक रहे। पूर्व पुण्योदय से मदनवेगा के साथ सुख से समय बिताते हुए कुमार वसुदेव | ने मदनवेगा की सेवा से प्रसन्न होकर कहा - मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। जो वर माँगना हो माँगो।
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