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॥ यह स्थिति देख कुमार वसुदेव ने उन्मत्त हाथी को अपने बाहुबल से मदरहित एवं नियंत्रित करके उन सब || स्त्रियों की रक्षा की और मूर्च्छित लड़की को उठाकर सचेत करके सान्त्वना दी। | लड़की ने वसुदेव को देखा तो वह उन पर आकर्षित हो लम्बी सासें भरने लगीं तथा लज्जा से झुक कर | स्पर्शजन्य सुख को देनेवाले कुमार का हाथ पकड़ लिया। | उस समय तो वसुदेव यथास्थान चले गये और वृद्धा धाय के साथ कुल की बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँ कन्या को लेकर अन्तःपुर चलीं गईं। एक दिन जब कुमार वसुदेव कुबेरदत्त सेठ के घर पत्नी रत्नवती के साथ बैठे थे कि राजा के यहाँ से द्वारपालनी ने आकर कहा – “यह तो आपको विदित ही है कि यहाँ के राजा सोमदत्त ने अपनी सोमश्री नामक कन्या के लिए स्वयंवर हेतु अनेक राजाओं को बुलाया था, जिसे सोमश्री ने कारणवश निरस्त कर दिया था।" स्वयंवर को निरस्त करने का कारण बताते हुए उसने कहा - "सोमश्री को जातिस्मरण हो जाने से पूर्वजन्म के संस्कार और स्मृति ताजी हो गई, जिसमें सोमश्री ने बताया कि वह देवी थी और उसके नियोगी देव आप थे। आप देव की पर्याय से पहले च्युत हुए। उस समय मेरी जिज्ञासा के समाधान में केवली की दिव्यध्वनि में आया कि जो हरिवंश के कुल में उत्पन्न होगा और हाथी से उत्पन्न भय को दूर करेगा वही मुझे पति के रूप में पुनः प्राप्त होगा। इसलिए हे सौम्य ! मेरी यह प्रार्थना है कि - आप सोमश्री का वरण कर उसके जीवन को कृतार्थ करें।" पूर्वभव का सम्बन्ध बतलाने पर वसुदेव ने सोमश्री के साथ विवाह कर लिया।
पुण्य-पाप का यह भी कैसा विचित्र खेल है। जहाँ पुण्योदय से एक से बढ़कर एक-अनेक कन्याओं से वसुदेव का विवाह होता रहा, साथ ही पापोदय से संकट भी कम नहीं आये। नाना उपद्रव हुए।
सोमश्री को भी कोई वैरी विद्याधर हर ले गया। जब कुमार जागे तो सोमश्री के वियोग में आकुल/ व्याकुल होने लगे। जिस विद्याधर ने सोमश्री का हरण किया था, उसी की बहिन ने सोमश्री का रूप धर कर कहा कि "मैं यह तो हूँ"। उसे देख कुमार ने पूछा - प्रिये! बाहर किसलिए गई थी? उसने उत्तर दिया
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