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ज्ञानधारा-कर्मधारा
समयसार कलश ११० पर प्रवचन
है और (एकम् एव परमं ज्ञानं स्थितम्) जो एक परम ज्ञान है, वह एक ही (मोक्षाय) मोक्ष का कारण है (स्वत: विमुक्तं) जो कि स्वतः विमुक्त है। (अर्थात् तीनों काल परद्रव्य-भावों से भिन्न है।)
भावार्थ :- जबतक यथाख्यातचारित्र नहीं होता, तबतक सम्यग्दृष्टि को दो धाराएँ रहती हैं - शुभाशुभ कर्मधारा और ज्ञानधारा । उन दोनों के एक साथ रहने में कोई भी विरोध नहीं है। (जैसे मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान के परस्पर विरोध है, वैसे कर्मसामान्य और ज्ञान के विरोध नहीं है। ऐसी स्थिति में कर्म अपना कार्य करता है और ज्ञान अपना कार्य करता है।
जितने अंश में शुभाशुभ कर्मधारा है, उतने अंश में कर्मबन्ध होता है और जितने अंश में ज्ञानधारा है, उतने अंश में कर्म का नाश होता है।
विषय-कषाय या व्रत-नियम के विकल्प अथवा शुद्ध स्वरूप का विचार तक भी कर्मबन्ध का कारण है और शुद्ध परिणतिरूप एक ज्ञानधारा ही मोक्ष का कारण है।
इस विषय पर आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी का विशेष विवेचन इसप्रकार है
“यद्यपि धर्मी अर्थात् सम्यग्दृष्टि-ज्ञानी पुरुषों को किंचित् भी राग की रुचि नहीं है, तथापि उनको शुभाशुभ राग होता है। वहाँ जितने अंश में पुण्य-पाप भाव है, वह बन्ध का कारण है और जितने अंश में शुद्धपरिणति है, वह संवर-निर्जरा का कारण है।
प्रश्न :- 'ज्ञानी के भोग निर्जरा के कारण हैं' - ऐसा कहा है न?
उत्तर :- हाँ ! कहा है; किन्तु इस कथन की अपेक्षा भिन्न है। कथनों की विभिन्न अपेक्षाओं को समझना भी अत्यन्त आवश्यक है।
ज्ञानी जीव को आत्मानुभव के समय स्वरूप-श्रद्धान की मुख्यता है, वहाँ भोगों में रहते हुए भी भोगादि सम्बन्धी उसके अन्तर में तीव्र
अरूचि विद्यमान है, इसकारण ज्ञानी जीव के कर्म-निर्जरा होती है।
यहाँ भोगादि सम्बन्धी जो अरुचि है, उसे ही कर्म-निर्जरा का हेतु कहा गया है। मुख्य प्रयोजन तो यह है कि ज्ञानी को अन्तर में भोग की महिमा नहीं है, अपितु स्वरूपदृष्टि की ही महिमा है। __यहाँ शुभाशुभभावों की मुख्यता से कहा गया है कि धर्मी को जो शुभाशुभभाव होते हैं, वे सब बन्ध के कारण हैं और एक मात्र परमज्ञान ही मोक्ष का कारण है।
देखो ! धर्मी को जितने अंश में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप अतीन्द्रिय आनन्द का परिणमन है, उतना अंश मोक्ष का कारण है तथा जितने अंश में शुभाशुभ भाव हैं, वे बंध के कारण हैं।
धर्मी को अवशपने अर्थात् वर्तमान पुरुषार्थ की कमजोरी के कारण पुण्य-पापरूप भाव होते हैं, किन्तु उसे पुण्य-पाप की होंस नहीं है, उत्साह नहीं है, इसप्रकार स्वभाव की अस्थिरतावश जो पुण्य-पाप के भाव होते हैं, वे बंध के कारण हैं और पुण्य-पाप भाव से रहित एक परमज्ञान ही मोक्ष का कारण है। ___ पाण्डे राजमलजी कृत कलश टीका में 'एकम् एव' का अर्थ निष्कर्म किया है। निष्कर्म अर्थात् कर्म से निरपेक्ष, पुण्य परिणामों की अपेक्षा बिना शुद्ध चैतन्य स्वभाव की दृष्टि, ज्ञान व रमणता प्रकट होती है, वह एक ही मोक्ष का कारण है तथा शेष समस्त शुभाशुभ भाव बंध के कारण हैं।
केवली भगवान की सम्पूर्ण अबन्ध अवस्था हैं। मिथ्यादष्टि को पूर्ण बन्ध अवस्था है और मोक्षमार्गी समकिती साधक जीव को कुछ बन्ध व कुछ अबन्ध अवस्था है।
इसप्रकार सम्यग्दृष्टि धर्मी को कुछ अंश में कर्मबन्ध का अभाव है और कुछ अंश में कर्मबन्ध का सद्भाव है। ये दोनों ही स्थितियाँ उसे एकसाथ विद्यमान हैं।
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