________________
समयसार कलश ११० पर प्रवचन
ज्ञानधारा-कर्मधारा द्रव्यस्वभाव के स्पर्श से साधक को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप स्वभाव प्रकट होता है, वहाँ ज्ञान स्वत: विमुक्त है, इसकारण अकेला ज्ञान ही मोक्ष का कारण है।
वीतरागी देव को राग से पूर्ण निवृत्ति है और मिथ्यादृष्टि को भगवान आत्मा से पूर्ण निवृत्ति है; किन्तु जिस साधक जीव को अपने भगवान आत्मा की रुचि जागृत हुई है, उसे निश्चित ही रागभाव से ममत्व छूट गया है। यद्यपि अभी उसके पूर्ण आत्मस्थिरता नहीं है, राग से पूर्ण निवृत्ति नहीं है तथापि जितने अंश में राग से निवृत्ति है, वह मोक्ष का कारण है और जितने अंश में राग में प्रवृत्ति है, वह बन्ध का कारण है।
राजा श्रेणिक पहले बौद्धधर्मी होने से मिथ्यादृष्टि थे, आत्मा से पूर्णत: निवृत्त थे। आत्मज्ञान होने पर वे क्षायिक सम्यग्दृष्टि हुए। उससमय उन्हें राग में किंचित् प्रवृत्ति थी तो किंचित् निवृत्ति भी थी। अनेक रानियों के साथ रहने एवं राज्यशासन करने पर भी क्षायिक सम्यक्त्व की भूमिकानुसार आत्मा की यथार्थ श्रद्धा-ज्ञान और आत्मप्रवृत्ति रूप आंशिक आचरण उनके अवश्य था।
इसप्रकार साधक जीव के जीवन में दोनों प्रकार की स्थितियाँ होती है और केवलज्ञानी परमात्मा के राग से पूर्ण निवृत्ति होती है।
सम्यग्दृष्टि को आत्मदर्शन-आत्मज्ञानपूर्वक आंशिक चारित्र भी हुआ है; किन्तु जबतक पूर्ण यथाख्यातचारित्र न हो, तबतक उनके जीवन में एक शुभाशुभ कर्मधारा अर्थात् रागधारा और दूसरी ज्ञानधारा - ये दोनों धारायें अवश्य रहती हैं। यहाँ रागधारा में केवल शुभराग ही नहीं होता, अपितु शुभराग के साथ अशुभराग भी होता है। इसतरह ज्ञानी जीव के एक शुभाशुभ कर्मधारा और दूसरी राग से भिन्न आत्मज्ञान की धारा सतत बहती रहती है।
शुद्ध चैतन्यस्वभाव के अवलम्बन से प्रकट हुई सम्यग्दर्शनरूप
ज्ञानधारा व पर के अवलम्बन से प्रकट हुई शुभाशुभभावरूप रागधारा - इन दोनों धाराओं के एकसाथ रहने में भी कोई विरोध या आपत्ति नहीं है। सम्यग्ज्ञान व मिथ्याज्ञान इन दोनों में जैसा विरोध है, वैसा विरोध यहाँ नहीं है। ये दोनों ही धाराएँ एकसाथ रहती हैं।
चतुर्थ गुणस्थान में समकिती को युद्धस्थल में युद्ध करते समय अथवा पाँचवें गुणस्थान में रौद्रध्यानरूप अशुभराग की धारा है तथापि वहाँ सम्यग्दर्शन-ज्ञान व आंशिक स्थिरतारूप जो चारित्र विद्यमान है, वह ज्ञानधारा है। सर्वत्र ही रागधारा अशान्ति व दुःख की धारा है तथा ज्ञानधारा शान्ति व आनन्द की धारा है। तथापि दोनों ही धारायें एकसाथ रहते हुये निर्बाधरूप से अपना-अपना कार्य करती हैं।
अहाहा ! पुण्य-पाप का भाव कर्मबन्ध का कार्य करता है और स्वभाव के अवलम्बन से प्रकट हुआ वीतराग भाव दर्शन-ज्ञान में शुद्धता एवं शुद्धता में वृद्धि का कार्य करता है। साधक को एक समय में दोनों धारायें विद्यमान है, किन्तु दोनों ही धाराओं के कार्य भिन्न-भिन्न हैं।
वीतरागी को कर्मधारा नहीं होती, केवल ज्ञानधारा ही होती है और मिथ्यादृष्टि के ज्ञानधारा नहीं होती, केवल कर्मधारा होती है।
जिसकी पर्याय में चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा का चैतन्यप्रकाश प्रकट नहीं हुआ, उस मिथ्यादृष्टि जीव के कर्मधारा अर्थात् रागधारा ही वर्तती है, अतः उसको मात्र बन्ध है तथा ज्ञानी जीव को भी दया-दानव्रत-भक्ति-पूजा-अर्चना इत्यादि भाव होते है, वे भी बन्ध का ही कारण हैं, मोक्ष का नहीं। जो बन्ध के कारण हैं, वे सब हेय हैं। वे मोक्ष का कारण कदापि नहीं हो सकते।
प्रश्न :- पंचास्तिकायसंग्रह में तो इन्हें धर्म का साधन कहा है ?
उत्तर :- पंचास्तिकायसंग्रह में विवेचन की अपेक्षा भिन्न है। वहाँ धर्मी जीव को निश्चयधर्म के साथ सहवर्तीपने रूप कैसा शुभभाव होता
8