________________ 300/ DE 251/ 250/ प्रस्तुत संस्करण की कीमत कम करने वाले दातारों की सूची 1. श्रीमती कुसुम जैन ध.प. श्री विमलकुमारजी जैन, 'नीरू केमि.' दिल्ली 501/2. श्री विमलचन्दजी जे. लालचन्दजी काला, इन्दौर 501/3. श्री रसिकलाल मगनलालजी जैन, ठाणा 300/4. श्री अरविन्दकुमारजी मड़वरिया, ठाणा 5. श्री शान्तिनाथजी सोनाज, अकलूज 6. श्रीमती रश्मिदेवी वीरेशजी कासलीवाल, सूरत 251/7. स्व. श्री बाबूलालजी तोतारामजी जैन, भुसावल 8. ब्र. कुसुमताई पाटील, कुम्भोज 251/9. श्री धर्मेन्द्रकुमारजी नवीनकुमारजी जैन, दिल्ली 250/10. श्रीमती शकुन्तलाजी जैन, गुना 11. सौ. कीर्ति दीपक दांगडे, भिगवन 250/12. श्री धनपालजी शुभरावजी एलौरे, भिगवन 250/13. श्रीमती श्रीकान्ताबाई ध.प. श्री पूनमचन्दजी छाबड़ा, इन्दौर 201/14. श्रीमती नीलू ध.प. श्री राजेशकुमार मनोहरलालजी काला, इन्दौर 201/15. श्रीमती इन्द्रा जैन, इटावा 201/16. श्रीमती सुन्दरी जैन, छपेटी-इटावा 201/17. श्रीमती मायादेवी जैन, इटावा 201/18. श्री मुन्शीलालजी जैन, इटावा 201/19. श्री चन्द्रप्रकाशजी जैन, इटावा 201/20. श्री वीरेन्द्रकुमारजी जैन, इटावा 201/21. श्री पुष्पकुमारजी जैन, इटावा 201/22. श्री सुशीलकुमारजी जैन, इटावा 201/23. श्रीमती समताजी जैन, गुना 201/24. श्रीमती वीणा ध.प. श्री सतीशजी पाटोदी, इन्दौर 201/25. श्रीमती शारदाबेन रमणलालजी फतेहपुर, ठाणा 201/26. स्व. धापू देवी ध.प. स्व. ताराचन्दजी गंगवाल जयपुर की पुण्य स्मृति में 151/27. श्रीमती पानादेवी मोहनलालजी सेठी, गोहाटी १५१/कुल राशि 6,521/ ज्ञानधारा-कर्मधारा (श्रीमदमृतचंद्रसूरिकृत आत्मख्याति कलश क्रमांक 110 से) (शार्दूलविक्रीडित ) यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः / किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बंधाय तन्मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः / / 110 / / (हरिगीत ) यह कर्मविरति जबतलक ना पूर्णता को प्राप्त हो। हाँ, तबतलक यह कर्मधारा ज्ञानधारा साथ हो / / अवरोध इसमें है नहीं पर कर्मधारा बंधमय / मुक्तिमारग एक ही है, ज्ञानधारा मुक्तिमय / / 110 / / अर्थ :- (यावत्) जबतक (ज्ञानस्य कर्मविरतिः) ज्ञान की कर्मविरति (सा सम्यक् पाकं न उपैति) भलीभाँति परिपूर्णता को प्राप्त नहीं होती, (तावत्) तबतक (कर्मज्ञानसमुच्चयः अपि विहितः न काचित् क्षतिः) कर्म और ज्ञान का एकत्रितपना शास्त्र में कहा है; उसके एकत्रित रहने में कोई भी क्षति या विरोध नहीं है। (किन्तु) किन्तु (अत्र अपि) यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि आत्मा में (अवशत: यत् कर्म समुल्लसति) अवशपने जो कर्म प्रगट होता है (तत् बन्धाय) वह तो बन्ध का कारण