________________
कृति के प्रूफ रीड़िग सम्बन्धी पण्डित संजयजी शास्त्री बड़ामलहरा के अतिरिक्त पण्डित संजीवजी गोधा, जयपुर एवं पण्डित सुदीपजी शास्त्री, बरगी का सहयोग प्राप्त हुआ। पण्डित श्रुतेशजी सातपुते, डोणगाँव एवं श्री कैलाशजी शर्मा, तितरिया (जयपुर) ने भी कम्पोजिंग, संशोधन व टाईपसेटिंग के कार्य में मेरा सहयोग दिया, अत: मैं इनका भी आभारी हूँ।
इस कृति के अनुवाद में मैंने पूर्ण सावधानी व सर्तकता रखी है, तथापि 'को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे' की उक्तिनुसार यदि कहीं कोई स्खलना हुई तो पाठकगण मेराध्यान अवश्य आकर्षित करेंगे। -जितेन्द्रकुमार राठी
प्रबन्ध सम्पादक, वीतराग-विज्ञान (हिन्दी) व जैनपथप्रदर्शक (पाक्षिक)
अनुक्रमणिका
जहाँ कहीं भी गुजराती भाषा का भाव या शब्द समझ में नहीं आता, वहाँ मेरे गुरु व मार्गदर्शक आदरणीय भाईसाहब शांतिकुमारजी पाटील का हमेशा की तरह सहयोग प्राप्त हआ। बड़ी सरलता से वे पर्वापर सम्पूर्ण विषय को देखकर तत्सम्बन्धी योग्य निर्देश देते हुये विषय का स्पष्टिकरण करते थे। भाईसाहब के सहयोग के कारण ही मैं निश्चिंत होकर इस कार्य को पूर्ण कर सका।
इस अनुवाद से मुझे जो आशातीत लाभ मिला है, उसे मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता । पूज्य गुरुदेवश्री द्वारा प्रतिपादित एक नवीन विषय को समझने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इसकारण गुरुदेवश्री का बहुमान हृदय में और अधिक दृढ़ हुआ है; एतदर्थ गुरुदेवश्री के प्रति अपनी कोटिश: आदरांजलि व्यक्त करता हैं। इस कार्य में आनन्द व आत्मसंतोष दोनों ही मुझे प्राप्त हुये; क्योंकि जिनवाणी सेवा का सच्चा सुफल यही है।
इसका सम्पूर्ण श्रेय आ. अण्णाजी को ही है; क्योंकि उनके कारण ही यह सम्पूर्ण विषय आज पाठकों के करकमलों में हैं। कहा जाये तो यह कति उनकी ही है। अण्णाजी ने इस सम्पूर्ण विषय को खोजकर मुझे उपलब्ध कराया और अनेकों बार इसे आद्योपान्त पढकर तदनुसार आवश्यक सुझाव दिये।
जिनवाणी की सेवा करने का जो सुअवसर इन्होंने मुझे दिया उसके लिये मैं दोनों गुरुओं के प्रति अपने भावसुमन अर्पित करते हुये उनका हार्दिक आभार व्यक्त करता हैं। भविष्य में भी आपके द्वारा सौंपे गये कार्यों को इसीप्रकार पूर्ण करने का मैं अवश्य प्रयास करूंगा।
उक्त कृति में साधक ( चतुर्थ से बारहवें गुणस्थानवर्ती ) समस्त जीवों के जीवन में एक ही समय, एक साथ शुभाशुभरूप कर्मधारा एवं निर्मल परिणति को स्पष्ट करनेवाली ज्ञानधारा किसप्रकार रहती है तथा उसका फल क्या है ? इस विषय को अत्यन्त विशद रीति से स्पष्ट किया है।
कृति में पाठकों को कुछ स्थानोंपर पुनरावृत्ति भी प्रतीत हो सकती है; किन्तु यहाँ उसे गौण करके गुरुदेवश्री के अभिप्राय को अक्षुण्ण रखा है। प्रवचनों का अनुवाद मुख्यतः शाब्दिक है; किन्तु हिन्दी वाक्यविन्यास की दृष्टि से वाक्यों का गठन हिन्दी भाषा के अनुरूप करने का प्रयास किया है। अत्यावश्यक यत्किंचित् परिवर्तन भी हुये हैं; किन्तु उससे विषयवस्तु और भाव में परिवर्तन नहीं हुआ है।
प्रकरण का नाम
पृष्ठ क्रमांक • प्रकाशकीय .प्रस्तावना •सम्पादकीय •समयसार कलश ११० •समयसार कलश ११० पर
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के प्रवचन • पाण्डे राजमलजी कृत कलशकाव्य की बालबोधिनी टीका २० • पाण्डे राजमलजी कृत बालबोधिनी टीका पर
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के प्रवचन • पण्डित दीपचन्दजी कासलीवाल कृत मिश्रधर्म अधिकार • पण्डित दीपचन्दजी कासलीवाल कृत मिश्रधर्म अधिकार ६५
पर आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के प्रवचन • आगम सन्दर्भ में ज्ञानधारा-कर्मधारा को पोषक
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के हृदयोद्गार