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श्रावक होते हुए भी मुनिराज के जीवन का स्वरूप लिखने का उन्हें क्या अधिकार ? उनको यह लिखना नहीं चाहिए; ऐसा विचार मेरे मन में आता था, फिर धर्म पढ़ानेवालों से मैंने सुना जीवन में आचरण नहीं है तो क्या हुआ ? उनको मुनि - जीवन संबंधी ज्ञान था सो उन्होंने लिखा है। उसमें गलती क्या हुई ? तब मुझे थोड़ा-बहुत विषय यह समझ में आया कि ज्ञान होना अलग बात है और उस विषय को आचरण में आना अलग बात है।
शास्त्र में यह भी पढ़ने को मिला कि सम्यग्दर्शन होने के बाद भी मनुष्य शादी करता है, युद्ध भी करता है। छह खण्ड का अधिपति भी बन सकता है। चक्रवर्ती को ९६ हजार रानियाँ रहती हैं तो भी वह धार्मिक माना जाता है। यह समझकर आचरण का स्वरूप क्या ? कैसा ? इत्यादि सम्बन्ध में मेरी जिज्ञासा और भी अधिक बढ़ गयी ।
चौबीस तीर्थंकरों में से तीन तीर्थंकर गृहस्थ जीवन में चक्रवर्ती और कामदेव थे । इतना सब परिग्रह होते हुए भी वे मोक्षमार्गी थे । इतना परिग्रह और मर्यादितरूप से हिंसादि पाँच पाप रहते हुए भी आंशिक धर्म उनके जीवन में व्यक्त है। यह क्यों और कैसे होता है? यह जिज्ञासा मेरे जीवन में विशेष रही।
इस जिज्ञासा के साथ ही मैं शास्त्र-स्वाध्याय करता रहा। इसी कालावधि में मुझे 'मिश्रधर्म' के संबंध में मोक्षमार्गप्रकाशक में संवरतत्त्व का अन्यथारूप (पृष्ठ : २२८) में मिश्रभाव पढ़ने को तो मिला; किन्तु मिश्रभाव का स्वरूप समझ में नहीं आया । स्वाध्याय करते-करते समयसार कलश ११० की सम्पूर्ण विषयवस्तु पढ़ने को मिली, जिससे मेरे मन को संतुष्टि हुई।
इसी विषय का विशेष अध्ययन करते हुए पण्डित दीपचंदजी शाह कृत अनुभवप्रकाश ग्रंथ के मिश्रधर्म अधिकार पर आध्यात्मिक सत्पुरुषश्री कानजीस्वामी के प्रवचन पढ़ने को मिले, जिससे विषय की अत्यधिक स्पष्टता हुई और मुझे अन्तरंग में विशेष- विशेष आनंद हुआ ।
मुझे जो विषय अति कठिनाई से समझ में आया था, वह विषय साधर्मियों को सहज समझ में आवे, इसी वात्सल्यभाव के कारण यह कृति पाठकों के हाथ देने का प्रयास किया है। - ब्र. यशपाल जैन, एम. ए., जयपुर
सम्पादकीय
देवाधिदेव सर्वज्ञ भगवंतों द्वारा कथित दिव्यध्वनि को अध्यात्म के प्रतिष्ठापक कुन्दकुन्दादि आचार्यों ने जिस गंभीरता व सहजता के साथ लिपिबद्ध किया है, उसी गंभीरता व सहजता के साथ आध्यात्मिकसत्पुरुष पूज्य श्री कानजीस्वामी ने जिनवाणी के अनेक गूढ़तम सिद्धान्तों को जन-जन के कल्याणार्थ उद्घाट किया । गुरुदेवश्री द्वारा किये गये जिनवाणी के इस परम रहस्योद्घाटन को पढ़ने व समझने में जिस आनन्द की प्राप्ति होती है, वह निश्चित ही शब्दातीत है।
इसी क्रम में आचार्य अमृतचन्द्रदेव द्वारा विरचित समयसार कलश ११० में समागत 'कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि' शब्द पर गुरुदेवश्री द्वारा जो विवेचन किया गया, वह भी अपूर्व है। यद्यपि यह विषय गुजराती भाषा में उपलब्ध था; किन्तु हिन्दी भाषा में यह विषय इसप्रकार एक साथ कहीं प्राप्त नहीं था।
आदरणीय ब्र. यशपालजी जैन (अण्णाजी) ने महाविद्यालय के विद्यार्थियों हेतु अपने प्रवचनों के क्रम में उक्त विषय को पण्डित दीपचन्दजी कासलीवाल कृत अनुभवप्रकाश ग्रन्थ के अन्तर्गत मिश्रधर्म अधिकार से लिया. जिसका सम्पूर्ण वर्णन स्वयं उन्होंने प्रकाशकीय व क्यों और कैसे ? में उद्धृत किया है।
इसीसमय अण्णाजी के हृदय में यह विकल्प आया कि गुरुदेवश्री द्वारा प्रतिपादित यह विषय मात्र स्वयं तक ही सीमित न रहकर सभी को प्राप्त हो - इस पवित्र उद्देश्य से गुरुदेवश्री द्वारा समयसार कलश ११० व मिश्रधर्म पर हुये गुजराती प्रवचनों का हिन्दी अनुवाद करने के लिये मुझसे कहा ।
एक ओर तो मेरे लिये गुरुदेवश्री के मर्म को समझने का स्वर्ण अवसर था तो दूसरी ओर आदरणीय गुरुवर्य अण्णाजी का मेरे प्रति विशेष स्नेह होने से उन्होंने इस कार्य का सुयोग्य अवसर मुझे दिया।
यह अनुवाद मेरी दृष्टि में केवल भाषा परिवर्तन ही नहीं; अपितु आगम के अभिप्राय को सुरक्षित रखते हुये गुरुदेवश्री की सूक्ष्म कथनी के भावों का अनुगमन करते हुए प्रांजल हिन्दी भाषा में उसकी सहज अभिव्यक्ति करना भी आवश्यक था, अन्यथा थोड़ी सी चूक में अर्थ का अनर्थ होने की संभावना रहती है। गुजराती से मेरा दूर तक कोई संबंध नहीं था; किन्तु वीतराग - विज्ञान (हिन्दी) में प्रकाशित हो रहे इष्टोपदेश प्रवचनों का अनुवाद करने से गुरुदेव श्री की शैली व भावों से सुपरिचित होने से इस कार्य में विशेष कठिनाई नहीं हुई ।