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इस प्रयास में समयसार कलश, समयसार कलश टीका, मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवें अध्याय का विशिष्ट अंश, अनुभवप्रकाश का मिश्रधर्म अधिकार तथा अध्यात्मसंदेश एवं परमार्थवचनिका के कुछ प्रवचन एवं प्रवचनांश मिले। उन सभी को इस कृति में संग्रहीत किया गया है।
स्वाध्यायप्रेमी समाज को यह विषय अवश्य ही प्रिय व प्रियतर होगा ऐसी मुझे आशा ही नहीं; अपितु पूर्ण विश्वास है; क्योंकि यह सम्पूर्ण माल युगपुरुष श्रीस्वामीजी का है।
पाठकों से मेरा नम्र निवेदन है कि और अन्य जगह जहाँ पर भी ज्ञानधारा एवं कर्मधारा के संबंध में विशिष्ट विषय आया हो, उसकी जानकारी मुझे पत्र द्वारा देने का कष्ट अवश्य करें।
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यहाँ मिश्रधर्म के नाम को गौण करके समयसार कलश क्रमांक ११० में इसी विषय को ‘ज्ञानधारा-कर्मधारा' नाम से आचार्य श्री अमृतचन्द्रदेव ने स्वीकृत किया है; अत: हमने इस समग्र साहित्य कृति का नाम भी 'ज्ञानधाराकर्मधारा' रखना ही उचित समझा।
इस कृति के लिए पण्डित जितेन्द्रकुमार राठी, शास्त्री जयपुर ने विशेष कष्ट उठाये हैं। सम्पूर्ण प्रवचनों का गुजराती भाषा से हिन्दी भाषा में अनुवाद करना, सम्पादन करना, प्रूफ देखना आदि सम्पूर्ण काम विशेष मनोयोगपूर्वक एवं रुचि के साथ किया; एतदर्थ हम उन्हें हार्दिक धन्यवाद देते हैं। अन्य भी अनेक साहित्य संबंधी कार्य वे इसीप्रकार करते रहेंगे - ऐसी हमारी आशा है।
प्रस्तुत कृति के सुन्दर प्रकाशन के लिए श्री अखिलजी बंसल एवं सुन्दर टाइप सैटिंग को विशेष लगन के साथ करनेवाले श्री कैलाशचन्द्रजी शर्मा को भी हम हार्दिक धन्यवाद देते हैं।
प्रस्तुत कृति को अल्प मूल्य में उपलब्ध कराने का प्रशंसनीय कार्य दानदातारों के सहयोग से ही संभव हो पाया है, इसलिए दातारों को भी धन्यवाद । पाठक इन प्रवचनों का मनोयोगपूर्वक जरूर लाभ लेंगे ही इसी विश्वास के साथ - ब्र. यशपाल जैन, एम. ए. प्रकाशन मंत्री, पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर
प्रस्तावना
पूर्व पुण्योदय से बचपन में माता-पिताजी के संस्कारवश धर्म के संबंध में सामान्यतः अपनापन था। योगानुयोग से श्री बाहुबली ब्रह्मचर्याश्रम, कुंभोज बाहुबली - कोल्हापुर में लौकिक एवं धार्मिक शिक्षण का लाभ मिला।
जब से थोड़ा-थोड़ा धर्म समझ में आने लगा, तभी से धार्मिक व्यक्तियों के व्यावहारिक जीवन को देखने की जिज्ञासा बनी रहती; किन्तु समाज में 'धार्मिक' नाम से प्रसिद्ध लोगों के जीवन को जब मैं क्रोधादि कषाय से संयुक्त देखता तो मुझे बहुत ही अटपटासा लगता था। मुझे लगता कि - धर्म तो अच्छा है; लेकिन धर्म का आलंबन लेने वाले लोग जितने चाहिए उतने अच्छे नहीं हैं। मुझे बारंबार विचार आता कि ये लोग धर्म जाते भी हुए क्रोधादि कषाय क्यों करते हैं ? घर में क्यों रहते हैं ? मुनि बनकर जंगल में रहकर विशेष तपश्चर्या करके, केवलज्ञान प्राप्त करते हुए सिद्ध परमात्मा क्यों नहीं बनते ? देर क्यों कर रहे हैं ? उनको समझानेवाला कोई नहीं है क्या ? ये लोग समझते हुए भी नासमझी क्यों करते हैं ? मैं तो धर्म समझ में आने के बाद ऐसा नहीं करूँगा। इन लोगों के समान क्रोधादि नहीं करूँगा, घर में भी नहीं रहूँगा - इन सबको यथार्थ बात अवश्य समझाऊँगा ।
प्रथमानुयोग के शास्त्रों में अनेक राजा, प्रधान, व्रती श्रावक और मुनिराज इत्यादि के जीवन चरित्र को पढ़कर भी अन्दर से मुझे उन धार्मिक लोगों के जीवन से असंतुष्टि ही रहती थी।
मैं हमेशा सोचता रहता था कि धर्म समझ में आने के बाद धर्म का आचरण पूर्णरूप से ही जीवन में लाना चाहिए।
जब सागार - धर्मामृत शास्त्र का अध्ययन करने का पुण्य अवसर प्राप्त हुआ तब यह भी जानकारी मिली की इस शास्त्र के रचनाकार/रचयिता पंडितजी है, श्रावक है, मुनि या आचार्य नहीं। साथ ही एक दिन यह भी सुनने को मिला कि इन्होंने ही अनगार धर्मामृत शास्त्र भी लिखा है; जिसमें मुनिराज के सम्यक् आचरण का वर्णन किया है।