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बालबीधिनी टीका
(पाण्डे राजमलजी कृत समयसार कलश ११० की ) “यहाँ कोई अज्ञानी जीव भ्रान्ति करता है कि मिथ्यादृष्टि के जो क्रियारूप यतिपना है, सो बंध का कारण है और सम्यग्दृष्टि के जो शुभक्रियारूप यतिपना है, वह मोक्ष का कारण है; क्योंकि अनुभवज्ञान तथा दया, दान, व्रत, तप, संयमरूप क्रिया ये दोनों मिलकर ज्ञानावरणादि कर्म का क्षय करते हैं।
इसका समाधान यह है कि जितनी शुभ-अशुभ क्रिया, बहिर्जल्पअन्तर्जल्परूप विकल्प, द्रव्यों का विचार अथवा शुद्धस्वरूप का विचार इत्यादि समस्त कर्मबन्धन का कारण है ।
सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि ऐसा भेद नहीं है, किन्तु जैसी क्रिया है, वैसा बन्ध है और शुद्धस्वरूप के परिणमन से मोक्ष है । यद्यपि एक ही काल में सम्यग्दृष्टि जीव के शुद्ध ज्ञान भी है और क्रियारूप परिणाम भी है ।
वहाँ क्रियारूप जो परिणाम, उससे अकेला बन्ध होता है, एक अंश भी कर्मक्षय नहीं होता है और उसीसमय जो शुद्धस्वरूप अनुभवज्ञान है, उससे कर्मक्षय होता है, एक अंश भी बन्ध नहीं होता - ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है।
अतः जिसप्रकार है, उसप्रकार कहते है- 'तावत्कर्मज्ञानसमुच्चयः अपि विहित: ' तबतक क्रियारूप परिणाम, आत्मद्रव्य का शुद्धत्वरूप परिणमन उनका एक जीव में एक ही काल में अस्तित्वपना है, तथापि विशेष यह है कि - 'काचित् क्षति: न' कुछ भी हानी नहीं है।
भावार्थ यह है कि एक ही जीव में एक ही काल में ज्ञान और क्रिया- ये दोनों एकसाथ कैसे हो सकते हैं ?
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समयसार कलश ११० की पाण्डे राजमलजी कृत बालबोधिनी टीका
इसका समाधान यह है कि उनमें (ज्ञान और क्रिया दोनों एकसाथ होनेपर भी) विरूद्ध कुछ नहीं है। कितने ही काल तक दोनों होते हैं, विरोधी समान दिखते है; परन्तु अपने-अपने स्वरूप में रहते हैं, उनमें विरोध नहीं है - ऐसा ही वस्तु का परिणाम है।
उतने काल तक जिसप्रकार है, उसप्रकार कहते हैं- 'यावत् ज्ञानस्य सा कर्मविरतिः सम्यक् पाकं न उपैति' जितने कालतक आत्मा का मिथ्यात्वरूप विभावपरिणाम मिटा है, आत्मद्रव्य शुद्ध हुआ है, उसकी पूर्वोक्त क्रिया, उसका त्याग बराबर परिपक्वता को नहीं पाता है अर्थात् क्रिया का मूल से विनाश नहीं हुआ है।
भावार्थ यह है कि जबतक अशुद्ध परिणमन है तबतक जीव को विभाव परिणमन है। वह विभाव परिणमन अन्तरंग और बहिरंग निमित्त के कारण है । जीव की विभावरूप परिणमनशक्ति यह अन्तरंग निमित्त है और मोहनीय कर्मरूप स्वयं परिणमित पुद्गलपिण्ड का उदय बहिरंग निमित्त है ।
मोहनीय कर्म भी दो प्रकार का है - १. मिथ्यात्व (दर्शनमोहनीय) और २. चारित्रमोहनीय |
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जीव का विभाव परिणाम भी दो प्रकार का है -
१. सम्यक्त्वगुण स्वत: विभावरूप होकर मिथ्यात्वरूप परिणमा और उससमय मिथ्यात्वरूप पुद्गलपिण्ड का उदय बहिरंग निमित्त है ।
२. जीव का चारित्रगुण, वह विभावरूप परिणमता हुआ विषयकषाय लक्षण चारित्रमोहरूप परिणमा है, जिसके प्रति चारित्रमोहरूप परिणमा पुद्गलपिण्ड का उदय बहिरंग निमित्त है ।
इसमें उपशम, क्षपण का क्रम इसप्रकार है - प्रथमत: मिथ्यात्व कर्म का उपशम या क्षपण होता है, तत्पश्चात् चारित्रमोह का उपशम या क्षपण होता है ।
उक्त बात का स्पष्टिकरण यह है कि किसी आसन्न भव्य जीव