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ज्ञानधारा-कर्मधारा
समयसार कलश ११० पर प्रवचन
बन्ध का कारण है, उसमें एक अंश भी संवर-निर्जरा का कारण नहीं है।
भावलिंगी मुनि को भी महाव्रतादिरूप जो शुभभाव हैं, वे बन्ध का कारण हैं तथा शुद्ध परिणतिरूप ज्ञानधारा मोक्ष का कारण है। ___कथंचित् ज्ञानधारा व कथंचित् रागधारा दोनों मोक्ष का कारण हो - ऐसा वस्तु का स्वरूप नहीं है।
जगत के जीवों को शुभभाव में धर्मबुद्धि का संस्कार पड़ गया है, शुभभावों के प्रति विशेष लगाव हो गया है, जिससे शुभभावों से धर्मबुद्धि का संस्कार छूटता नहीं है और इसकारण शुभभाव से लाभ होता है - ऐसा कोई कहे तो जगत के जीव प्रसन्न हो जाते हैं।
अपनी प्रवृत्ति के अनुसार उपदेश प्राप्त हो तो इस जीव को अच्छा लगता है; किन्तु हे भाई! यह मान्यता ही मिथ्यात्व नामक शल्य है।
समयसार नाटक में पण्डित बनारसीदासजी कहते हैं कि - "मुनिराज को पंचमहाव्रतादि के पालनरूप जो परिणाम होते हैं, वे प्रमाद परिणाम हैं, ये परिणाम जग-पंथ, संसार-पंथ है, बन्ध का मार्ग है। इस भाव से भव मिलता है और आत्मा की आत्मरूप प्रतीति से मोक्ष मिलता है।"
हे भाई ! अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ है। इसमें समस्त प्रकार के विवादों का त्यागकर यह निश्चय करना है कि भवसमुद्र तिरने का उपाय स्वाश्रय से ही प्राप्त होगा और पराश्रय से मात्र बन्ध ही होगा।
समयसार-बन्धाधिकार के १७३ वें कलश में आचार्य अमृतचन्द्रदेव लिखते है कि - "सर्व वस्तुओं में जो अध्यवसान होते हैं, वे सब त्यागने योग्य है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है, इसलिये हम ऐसा मानते हैं कि - ‘पर जिसका आश्रय हैं' - ऐसा सम्पूर्ण व्यवहार छोड़नेयोग्य है। फिर ये सत्पुरुष एक सम्यक् निश्चय को ही निश्चलतया अंगीकार करके शुद्धज्ञानघनस्वरूप निज महिमा अर्थात् आत्मस्वरूप में स्थिरता क्यों धारण नहीं करते ?"
आचार्यदेव ने यहाँ आश्चर्यपूर्वक सम्पूर्णप्रकार का पराश्रय छोड़कर अन्त:स्थिरता प्राप्त करने की प्रेरणा दी है।
समयसार के बन्धाधिकार गाथा २७२ में भी कहा है कि - ___ 'मुनिराज जो निश्चयनयाश्रित, मोक्ष की प्राप्ति करे।'
अहाहा ! इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी जिसके अन्तर में शुभराग की महिमा बसी है, उसे पूर्णानन्द के नाथ सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान, पूर्ण वीतरागता, प्रभुता एवं ईश्वरता के स्वभाव से भरे हुए अपने आत्मा की महिमा कैसे आये ? उसे तो राग-रुचि की आड़ में सम्पूर्ण शक्ति सम्पन्न निजात्मा अपनी नजरों से दूर ही हो गया है।
जिसतरह एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं, उसीतरह राग की महिमा व शुद्ध चिद्रूप की महिमा दोनों एक साथ नहीं हो सकतीं। अत: हे भाई ! यदि तुम्हें मोक्ष की इच्छा है तो राग की रुचि छोड़ो और शुद्ध चैतन्यमय निज परमात्मा की महिमा कर उसी में अन्तर्लीन होवो।
इसप्रकार धर्मी जीव को हुए महाव्रतादि के परिणाम भी बन्ध के कारण हैं और शुद्धत्वपरिणमन रूप ज्ञानधारा ही मोक्ष का कारण है।
प्रश्न :- जितना अशुभभाव से बचें, उतना तो संवर है न ?
उत्तर :- नहीं, ऐसा नहीं है। अशुभभाव से बचकर जो शुभभाव उत्पन्न हुआ है, वह शुभभाव स्वयं ही बन्ध का कारण है। केवल एक ज्ञानपरिणति ही संवर-निर्जरा का कारण है।
इसप्रकार साधक जीव के जीवन में एक ही समय में ज्ञानधारा और कर्मधारा प्रवर्तित होती है, तथापि उस जीव को ज्ञानधारा का आदर है, कर्मधारा का नहीं; क्योंकि एक ज्ञानधारा ही संवर-निर्जरा का कारण है और कर्मधारा आस्रव का कारण है, अतः ज्ञानधारा का आश्रय लेकर शुद्धत्वरूप परिणमन के माध्यम से मोक्षप्राप्ति के लिए अग्रसर होना चाहिए।
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