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________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा के काललब्धि प्राप्त होने से मिथ्यात्वरूप पुद्गलपिण्ड कर्म उपशम अथवा क्षपण को प्राप्त होता है और जीव सम्यक्त्वगुणरूप परिणमता है, यह परिणमन शुद्धतारूप है । यही जीव जबतक क्षपकश्रेणी पर चढ़ेगा, तबतक चारित्रमोहकर्म का उदय है। इसके रहते हुए जीव विषय कषायरूप परिणमता है। यह परिणमन रागरूप अर्थात् अशुद्धरूप है। इसकारण किसी काल में जीव को शुद्ध - अशुद्धपना एक ही समय में घटते हैं; किन्तु इसमें विरोध कुछ नहीं है । 'किन्तु' जो विशेष है, वह इसप्रकार है । 'अत्र अपि यद्यपि एक ही जीव के एक ही काल में शुद्ध - अशुद्धपना होता है, तथापि अपना-अपना कार्य करते हैं। २२ ‘यत् कर्म अवशतः बन्धाय समुल्लसति' जितनी द्रव्य भावरूप, अन्तर्जल्प - बहिर्जल्परूप, सूक्ष्म स्थूलरूप क्रिया अर्थात् सम्यग्दृष्टि पुरुष सर्वथा क्रिया से विरक्त है, तथापि चारित्रमोह कर्म के उदय में बलात्कार ( न चाहते हुए भी जीव की पुरुषार्थ हिनता के कारण) जो क्रियाएँ होती है, वे ज्ञानावरणादि कर्मबन्ध को ही करती है, संवरनिर्जरा अंशमात्र भी नहीं करती। 'तत् एकं ज्ञानं मोक्षाय स्थितं' अतः पूर्वाक्त एक शुद्ध चैतन्यप्रकाश ही ज्ञानावरणादि कर्मक्षय का निमित्त है, परन्तु वहाँ भी जितना अंश शुद्धपना है, उतना कर्मक्षपण है और जितना अंश अशुद्धपना है, उतना कर्मबन्ध है । इसप्रकार एक ही काल में दोनों कार्य होते हैं। 'एव' यह ऐसा ही है, उसमें सन्देह नहीं करना है तथा वह (जिस शुद्ध चैतन्यप्रकाश के कारण कर्मक्षपण हुआ है) शुद्धज्ञान 'परम' अर्थात् सर्वोत्कृष्ट पूज्य और 'स्वतः विमुक्तं' तीनों काल में समस्त परद्रव्यों से भिन्न है । " • 12 आ. सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के प्रवचन (पाण्डे राजमलजी कृत समयसार कलश ११० की टीका पर) यहाँ अज्ञानी जीव ऐसा मानता है कि मिथ्यादृष्टि के जो मुनिपना अथवा पाँच महाव्रतादि के पालनरूप क्रिया हैं, वे सब ( अशुभक्रिया होने से) बंध का कारण है और सम्यग्दृष्टि के अणुव्रतादि के पालनरूप अथवा मुनि के पंच महाव्रतादि शुभक्रिया होने से मोक्ष का कारण हैं। वास्तव में मिथ्यादृष्टि के पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, षट् आवश्यक आदि रूप जो यतिपना है, वह व्यवहार होने से बंध का कारण है और सम्यग्दृष्टि का व्यवहार अर्थात् पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति आदि क्रियाएँ मोक्ष का कारण हैं। हे भाई! अपनी शुद्ध चिदानन्द निजात्मा के आनन्द का वेदन, अनुभवन वह एक ही मोक्ष का कारण है तथा भक्ति, पूजा, दया दान, व्रत- शील-संयमादि समस्त क्रियाएँ बंध का ही कारण हैं। निज अनुभवज्ञान अर्थात् सम्यग्दर्शन और आनन्द का वेदन तथा उसके साथ होनेवाली दया दान व्रत-तप आदि क्रियाएँ- ये दोनों मोक्षमार्ग है, ज्ञानावरणादि कर्म का क्षय करती हैं ऐसा अज्ञानी जीव मानता है; किन्तु इस मान्यता से कभी मोक्ष नहीं होगा । सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् पंच महाव्रतादि क्रियाओं को मोक्ष का कारण मानना यह अज्ञानी की झूठी मान्यता है। जितनी भी शुभाशुभ क्रिया अर्थात् शुभभावरूप दया-दान-व्रततप-संयमादि की क्रिया तथा अशुभभावरूप हिंसा - झूठ-चोरी आदि की क्रिया हैं । बहिर्जल्परूप बोलना इत्यादि विकल्प, अन्तर्जल्प- रूप
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
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