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गुणस्थान विवेचन स्थितिकांडक घात समझने के लिये नक्शे की मदद लेते हैं। लकीर पूर्वबद्ध कर्म के स्थान पर है। लकीर के ऊपरी भाग के बगल में एक चौक दिखाया है, जो बहत वर्षों के बाद उदय में आने योग्य सत्ता में पड़े हुए कर्मों का पुंज है। उस कर्मपुंज से नीचे की ओर जाता हुआ बाण दिखाया है। इसका अर्थ बहुत वर्षों के बाद उदय में आने योग्य कर्मों को विशुद्ध परिणामों के निमित्त होने से कम वर्षों में उदय आने योग्य विशिष्ट प्रमाण से अर्थात् उपरितन विभाग में स्थित कर्मों की स्थिति घटकर अधःस्तन के
विभाग में मिल गये, इसी को स्थिति-कांडकघात कहते हैं।
३. पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों का असंख्यातगुणा अनुभाग कांडकघात होता है। वृद्धिंगत वीतरागता और मंदकषायरूप परिणामों के कारण ऊपर स्थितिकांडकघातसमझाया है। नक्शे से भी समझाने का प्रयास किया है। जिस पापकर्म का जितना
स्थितिकांडकघात होता है, उस मात्रा में उस पापकर्म का r अनुभाग नियम से कम होता है; ऐसा कर्म शास्त्र का नियम है।
पहले समय में उदय में आनेवाले पापकर्मों में जितना अनुभाग है, उससे अगले-अगले समय में उदय में आनेवाले उन कर्मों का असंख्यात गुणा अनुभाग घटकर फलदान शक्ति की हीनता होना, असंख्यातगुणा अनुभागकांडकघात है।
अधिक अनुभागवाले कर्मपरमाणुओं का नीचे कम अनुभागवाले कर्मपरमाणुरूप विशिष्ट प्रमाण से शक्तिहीन होना ही अनुभागकांडक घात है।
अनुभाग अधिक और कर्म-परमाणु कम तथा अनुभाग कम एवं कर्मपरमाणु अधिक, ऐसा ही अनुभाग बंध और प्रदेशबंध का स्वरूप है।
४. अपूर्वकरण परिणामों के निमित्त से पूर्वबद्ध कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा का प्रारंभ हुआ है।
पहले समय में जितने कर्मों की निर्जरा होती है, दूसरे समय में उनसे असंख्यातगुणे अधिक कर्मों की निर्जरा होती है, उसे असंख्यातगुणीनिर्जरा कहते हैं।
पहले तो पूर्वबद्ध सत्ता के कर्मों में जीव के परिणामों के निमित्त से स्वयमेव कर्मों की गुणश्रेणी रचना होती है। तदनंतर फिर गुणश्रेणी
अपूर्वकरण गुणस्थान
___१८७ निर्जरा का प्रारंभ होता है। नक्शे से इस विषय को स्पष्ट करते हैं। पास के नक्शे में १ से लेकर ७ पर्यंत संख्या क्रम से दिखाई गयी है। ____एक क्रमांक की जो पहली आड़ी लकीर है, उससे द्वितीय क्रमांक की
लकीर चौड़ाई में अधिक है अर्थात् पहले समय 7 में जितने कर्मों की निर्जरा होती है, उनसे " असंख्यात गुणी अधिक कर्मों की निर्जरा
द्वितीय समय में होती है। द्वितीय समय में 3 जितने कर्म निर्जरित होकर झड़ जाते हैं, तृतीय 2 समय में उनसे असंख्यात गुणे अधिक कर्म
' झरते रहते हैं। ऐसा ही क्रम अब भविष्य में अखंडरूप से बारहवें गणस्थान के अंतिम समय पर्यंत चलता ही रहेगा। इसे ही गुणश्रेणी निर्जरा कहते हैं।
गुणश्रेणी की रचना होना और गुणश्रेणीरूप निर्जरा होते रहना यह क्रम जीव के बुद्धिंगत शुद्ध परिणामों से स्वयमेव होता ही रहता है।
इसमें अपने सहज स्वभाव के आश्रय से निरंतर शुद्धि की वृद्धि करते रहना; यह तो जीव का कार्य है और कर्मों की निर्जरा होना यह पुद्गल में होनेवाला कार्य है। कर्मों की निर्जरा का उपादान कर्त्ता पुद्गल द्रव्य है, जीव नहीं।
८०. प्रश्न : श्रेणी पर आरूढ़ मुनिराज के वीतराग परिणामों में प्रतिसमय जब अनंतगुणी वृद्धि हो रही है, तब कर्मों की निर्जरा भी असंख्यात गुणी के स्थान पर अनंतगुणी क्यों नहीं होती?
उत्तर : श्रेणी पर आरूढ़ मुनिराज के परिणामों में विशुद्धि अनंतगुणी पाई जाती है, वह अविभागी प्रतिच्छेदों की अपेक्षा से है और कर्मों की निर्जरा समयप्रबद्ध प्रमाण से होती है।
एक संसारी जीव के अधिक से अधिक असंख्यातासंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण ही कर्म का सत्त्व पाया जाता है तो निर्जरा अनंतगुणा कैसी होगी ? एक समय में उत्कृष्ट से असंख्यात समयप्रबद्ध की ही निर्जरा होती है, उससे अधिक नहीं होती; अतः निर्जरा का प्रमाण असंख्यातगुणा ही होता है इसलिए अनंतगुणी निर्जरा नहीं होती।