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गुणस्थान विवेचन ७९. प्रश्न : इस आठवें उपशमक अपूर्वकरण में न मरनेरूप नियम की क्या आवश्यकता है?
उत्तर : करणानुयोग शास्त्र के प्रत्येक कथन का कारण/हेतु नहीं दे सकते: क्योंकि करणानयोग शास्त्र अहेतुवाद आगम है, इसलिए जैसा है, वैसा सर्वज्ञ भगवंतों ने कहा है, आप भी उसको आज्ञानुसार मान लो।
श्रेणी चढ़ने के तीव्र पुरुषार्थरूप परिणाम में मरण नहीं होता, यह कारण भी कह सकते हैं।
उत्कृष्टकाल - यथायोग्य एक ही अंतर्मुहूर्त है। यदि उपशमक अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती मुनिराज अधिक से अधिक काल इस गणस्थान में रहेंगे तो मात्र एक अंतर्मुहूर्त ही रहेंगे।
क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थान का काल भी यथायोग्य अंतर्मुहूर्त ही है। इसका जघन्य-उत्कृष्ट काल, ऐसा भेद ही नहीं है।
मध्यमकाल - उपशमक अपूर्वकरण गुणस्थान का मरण की अपेक्षा से दो, तीन, चार आदि समयों से लेकर यथायोग्य अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत बीच के होनेवाले काल के सर्व भेद मध्यमकाल के हो सकते हैं। गमनागमन अपेक्षा विचार -
गमन - १. उपशमक या क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती मुनिराज ऊपर की ओर नियम से अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में गमन करते हैं।
२. उपशमक अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती मुनिराज श्रेणी से उतरते समय नियम से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में गमन करते हैं।
३. यदि आठवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज का आठवें गुणस्थान में मरण होता है तो तत्काल ही विग्रह गति के पहले समय में ही वे चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में ही गमन करते हैं।
चढ़ते समय उपशमक अपूर्वकरण के प्रथम भाग में मरण न होने का नियम है; अन्य भाग में चढ़ते समय भी मरण हो सकता है। उतरते समय उपशमक अनिवृत्तिकरण से नीचे अपूर्वकरण गुणस्थान में किसी भी समय मरण हो सकता है।
आगमन :- १. उपशमक अपूर्वकरण गुणस्थान में आगमन नीचे के सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से ही होता है।
अपूर्वकरण गुणस्थान
१८५ २. उपशमश्रेणी से उतरते समय ऊपर के उपशमक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान से भी आठवें गुणस्थान में आगमन होता है।
३. क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थान में आगमन मात्र अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से होता है; ऊपर के किसी भी गुणस्थान से नहीं; क्योंकि क्षपक नीचे उतरते ही नहीं; वे तो नियम से अरहंत बनकर सिद्ध ही हो जाते हैं। विशेष अपेक्षा विचार -
१. सातिशय अप्रमत्तविरत गुणस्थान में अधःप्रवृत्तकरण के निमित्त से जो चार आवश्यक बताये गये हैं, वे सर्व आवश्यक इस अपूर्वकरण गुणस्थान में भी निरन्तर होते ही रहते हैं। उनको इस आठवें गुणस्थान के संबंध में दुबारा देखने का कष्ट करें।
२. पूर्वबद्ध कर्मों का असंख्यातगुणा स्थितिकांडक घात होता है। सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान में अधःप्रवृत्तकरण के निमित्त से नये बंधनेवाले कर्मों का उत्तरोत्तर अल्प स्थितिबंध होता है; इसी कार्य को स्थितिबंधापसरण कहते हैं। अपूर्वकरण के कारण पूर्वबद्ध कर्मों का स्थितिकांडक घात होता है।
यहाँ रहस्य की बात यह है कि किसी भी कर्म की स्थिति (पुण्य हो या पाप) कम होना साधक के लिये अच्छा ही है; क्योंकि अधिक स्थितिबंध का अर्थ संसार में अधिक समय पर्यंत रहकर जन्म-मरण की चक्की में पिसते रहना है। अल्प स्थितिबंध में तो जीव का मंदकषायरूप भाव कारण है; परन्तु स्थितिकांडक घात में तो वृद्धिंगत वीतराग परिणाम के साथ रहनेवाला मंद कषायरूप विशुद्धभाव निमित्त कारण हैं। सातवें गुणस्थान से आठवें गुणस्थान में वीतरागता बढ़ गयी है।
स्थितिबंधापसरण का भाव यह है कि जैसे सामने, लड़ने के लिये आये हुए शत्रुओं को अपनी सामर्थ्य से बलहीन करते रहने के समान है और स्थितिकांडक घात का भाव यह है कि जैसे सोये हुये अथवा लड़ने के लक्ष्य से विस्मत हए बलवान शत्रुओं को सावधान करके अथवा शत्रुता का स्मरण दिलाकर उनके साथ अपने विशेष सामर्थ्य से लड़ते हुए उन शत्रुओं को यथा शीघ्र उनकी शक्ति क्षीण करते हुए जीत लेने के समान है।