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गुणस्थान विवेचन
उत्कृष्ट काल - यदि अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनिराज का मरण नहीं होता है तो वे यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत इस सातवें गुणस्थान में रहते हैं। सातवें गुणस्थान का उत्कृष्ट काल यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त है।
मध्यम काल - छठवें गुणस्थान से ऊपर अप्रमत्तसंयत में जाने की अपेक्षा तथा अपूर्वकरण गुणस्थान से नीचे अप्रमत्तसंयत में आने की अपेक्षा भी विचार करते हैं और मरण की विवक्षा से भी सोचते हैं तो दो, तीन, चार आदि समयरूप काल से लगाकर यथायोग्य अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत बीच के जितने भी भेद हैं; वे सब अप्रमत्तसंयत के मध्यम काल के ही भेद हैं।
गमनागमन अपेक्षा विचार -
गमन - १. सातिशय अप्रमत्तसंयत मुनिराज का ऊपर की ओर गमन मात्र अपूर्वकरण गुणस्थान में ही होता है ।
२. स्वस्थान अप्रमत्तसंयत मुनिराज का गमन नीचे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही होता है।
३. यदि उपशमश्रेणी से नीचे पतन काल में कोई मुनिराज अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में आये हैं तो उनका गमन भी प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही होता है।
४. छठवें से सातवें में आये हों अथवा आठवें से सातवें गुणस्थान में आये हों तो भी यदि ध्यानमग्न मुनिराज का शुद्धोपयोग के काल में ही मरण हो जाता है तो उन मुनिराज का गमन विग्रहगति के समय चौथे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में ही होता है।
आगमन - १. सादिया अनादि मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज का मिथ्यात्व से सीधे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में आगमन हो
सकता है।
२. अविरतसम्यक्त्व गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज का सीधे अप्रमत्तसयंत गुणस्थान में आगमन संभव है।
३. देशविरति गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज का सीधे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में आगमन हो सकता है।
अप्रमत्तविरत गुणस्थान
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४. प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती भावलिंगी संतों का आगमन सातवें अप्रमत्तसंयत में तो हमेशा होता ही है।
५. उपशमश्रेणी से नीचे की ओर पतन करनेवाले अपूर्वकरण गुणस्थान से अप्रमत्तसंयत में आना होता है। विशेष अपेक्षा विचार -
सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान में चार आवश्यक कार्य होते हैं ।
१. समय - समय प्रति आत्मा में अनंतगुणी विशुद्धि होती रहती है। पहले समय में जितनी मात्रा में विशुद्धि है, उससे अनंतगुणी नयी विशिष्ट विशुद्धि दूसरे समय में हो जाती है। दूसरे समय की वीतरागता से तीसरे समय की वीतरागता अनंतगुणी बढ़ती है; ऐसा क्रम अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत लगातार चलता रहता है।
विशुद्धि या विशुद्धता में वृद्धिंगत वीतराग परिणाम और घटता हुआ कषाय का अंश - दोनों गर्भित हैं। इसे मिश्रधारा भी कहते हैं।
जैसे - किसी आदमी को आज पहले दिन दस रुपये का लाभ हुआ है। वह दस रुपयों का लाभ प्रत्येक दिन दस गुणा बढ़ता रहता है तो उसे सातवें दिन कितना लाभ होता है, इसका निर्णय कर लेते हैं। इसी से वीतरागता में अनंतगुणी वृद्धि का अनुमान हो जाता है।
(१) पहले दिन का लाभ मात्र दस रुपया का है।
(२) दूसरे दिन का लाभ दसगुणा अर्थात् १० ह्न १० = १०० रुपये | (३) तीसरे दिन का लाभ १०० १० = १००० रुपये । (४) चौथे दिन का लाभ १०००ह्न १० = १०००० रुपये । (५) पाँचवें दिन का लाभ १०००० ह्न १० = १००००० रुपये | (६) छठवें दिन का लाभ १ लाख ह्न १० = १० लाख रुपये । (७) सातवें दिन का लाभ १० लाख ह्न १० = १ करोड़ रुपये । व्यापार में यदि किसी को रोज दस गुणा लाभ होता है तो उस व्यापारी को सातवें दिन ही १ करोड़ रुपयों का लाभ हो जाता है।