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गुणस्थान विवेचन कार्यों को करना प्रमाद या आत्मा की असावधानता अथवा मुनिजीवन का अनुत्तम कार्य है, ऐसा कथन केवली भगवान करते हैं।
मुनिपना ही अलौकिक तथा अनुपम दशा है। यही दशा साक्षात् भगवान होने का सच्चा एकमात्र उपाय है। साधु हुआ तो सिद्ध हुआ करनी रही न कोय यह अभिप्राय सत्य है। साधु अर्थात् दिगम्बर मुनि हैं तो मनुष्य-गति के जीव; लेकिन वास्तव में वे चलते-फिरते सिद्ध भगवान ही हैं; क्योंकि मुनिजीवन सिद्धदशारूपी पर्वत की तलहटी ही है। जैसे सिद्ध भगवान साक्षात् ज्ञाता-दृष्टा हो गये हैं; वैसे ही दिगम्बर भावलिंगी संत भी अपनी भूमिका के अनुसार ज्ञाता-दृष्टा ही रहते हैं। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार -
स्वस्थान अप्रमत्त मुनिराज को तो औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक - इन तीनों सम्यक्त्व में से कोई भी एक सम्यक्त्व रह सकता है; परन्तु सातिशय अप्रमत्त मुनिराज को द्वितीयोपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व - इन दोनों में से ही कोई एक रहता है।
सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनिराज को तो श्रेणी पर आरोहण करना है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के साथ वे श्रेणी आरोहण नहीं कर सकते; क्योंकि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में जो केवलज्ञानगम्य चल मलअगाढ दोष होते हैं, वे सूक्ष्म दोष भी श्रेणी के आरोहण कार्य में बाधक हैं। यद्यपि ये दोष सम्यक्त्वरूपी धर्म में तो विशेष बाधा उत्पन्न नहीं कर पाते; लेकिन श्रेणी-आरोहण के अलौकिक कार्य में बाधक अवश्य होते हैं।
अतः बाधकपने को दूर करने के लिए ही मुनिराज का क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ही औपशमिक सम्यक्त्वरूप से परिणमित हो जाता है। इस कारण औपशमिक सम्यक्त्व में क्षायिक सम्यक्त्व जैसी निर्मलता आ जाती है, इसी सम्यक्त्व को द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं।
श्रेणी चढ़ने के सन्मुख सातिशय सप्तम गुणस्थानवर्ती क्षायोपशमिक
अप्रमत्तविरत गुणस्थान सम्यग्दृष्टि जीव के त्रिकरणपूर्वक अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क के विसंयोजन तथा दर्शन मोहनीय त्रिक के उपशम के समय होनेवाले श्रद्धा गुण के सम्यक् परिणमन को द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। (उपशम श्रेणीवाले के लिए अनंतानुबंधी का विसंयोजन हो अथवा न भी हो कोई नियम नहीं है।) चारित्र अपेक्षा विचार - ___इस अप्रमत्तसंयत सातवें गुणस्थान में क्षायोपशमिक चारित्र होता है। वह क्षायोपशमिकपना निम्न प्रकार घटित होता है - प्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म के वर्तमानकालीन सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय, उनके ही भविष्य में उदय आनेयोग्य स्पर्धकों का सद्अवस्थारूप उपशम
और देशघाति संज्वलन कषाय तथा हास्यादि नौ नोकषायों का मंद उदय होता है। ____ मुनिजीवन में व्यक्त/प्रगट वीतरागभाव तो निश्चय चारित्र है और वीतरागता के साथ उसी समय अबुद्धिपूर्वक राग परिणाम, वह व्यवहार चारित्र है। निश्चय चारित्र तो मोक्षमार्गस्वरूप होने से उससे संवर-निर्जरा सतत होते रहते हैं; उसीसमय जो अबुद्धिपूर्वक कषायरूप परिणमन है, वह व्यवहार चारित्र है, उससे आस्रव-बंध भी होते रहते हैं। काल अपेक्षा विचार -
जघन्य काल - कोई प्रमत्तसंयत गणस्थानवर्ती भावलिंगी संत शुभोपयोग का अभाव करके शुद्धोपयोगरूप अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में मात्र एक समय ही रहें और तत्काल ही मनुष्यायु का क्षय हो जाय तो ध्यानावस्था में ही मरण होता है। इसप्रकार मरण की अपेक्षा से ही मात्र एक समय घटित हो जाता है।
जब उपशमक मुनिराज श्रेणी से उतरते समय अपूर्वकरण गुणस्थान से नीचे सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में आते हैं; तब अप्रमत्तसंयत में मात्र एक समय रह पाये और तत्काल मनुष्यायु का क्षय हो जाय तो मरण की अपेक्षा मात्र एक समय घटित हो जाता है।